Wednesday, December 31, 2008

और वो बेबाक हो गया !

सुबह-सुबह कॉलर तक के बटन लगाए और झकाझक सफेद बुरशट पर चमचमाते लाल रंग का कन्ठ्लन्गोट पहने, सुहास दफ़्तर के लिए निकला, आज डेनमार्क से उसके फिरंगी मालिक लोग आने वाले थे. भैया कॉर्पोरेट की दुनिया भी अजीब होती है,यहाँ आप मालिकों को मालिक नहीं कुलीक कहतें हैं, हाँ यह बात दूसरी है कि उनके आने के बाद आपको ,आपका कुल समझा दिया जाता है. सुहास देशी परिवेश में पला - बढ़ा लड़का था,जवानी की दहलीज पर भटकन दिखी तो पिताजी ने सॉफ़्टवेयर सीखवा दिया और लल्लू पहुँच गये बंबई नौकरी करने. अब बचपन से लेकर जवानी तक ,जो फटी बनियान पहने आगरा की कुंज गलियों में घूमा हो,वह भला कन्ठ्लन्गोट संस्कृति कहाँ समझ पाता . खैर कल देशी मालिकों का फरमान आया था की बड़े पापा(विदेशी मालिक) आने वाले है तो कन्ठ्लनोट तो बांधना ही पड़ेगा,आख़िर भारत की इज़्ज़त का सवाल जो था.

सुहास को मन ही मन बड़ा गुस्सा आ रहा था,ये ससुरे क्या सबरी कुतीब मीनार ,ताजमहल छोड़ कर मेरा कन्ठ्लन्गोट ही देखने आ रहे है ,सोचते-सोचते उसने अपने देशी मालिकों को पचासों गलियाँ दे डालीं . आज दफ़्तर का माहॉल बदला -बदला लग रहा था,सारे कंप्यूटरों के बीच लाल-लाल कन्ठ्लन्गोट लगाए लोग बतीसे चमका रहे थे.सुहास को ऐसा लगा जैसे किसी ने उसे मुर्गों के दबड़े मैं धक्का दे दिया है और सारे मुर्गे किसी मादा को प्रणय के लिए राज़ी करने को अपनी-अपनी कलंगी चमका रहे हों .धीरे -धीरे वह भी चलते हुए अपनी जगह पर जाकर बैठ गया.

बे(बैठने कि जगह) मै भगदड़ मची हुई थी और सभी लोग इधर-उधर दौड़ रहे थे,कसम से इतनी दौड़- भाग तो बनियों कि शादी मैं भी नही होती,खैर कुछ देर बाद बिगुल बज गया और पता चला कि डेनमार्क वाले मलिक,माफ़ कीजिएगा कुलिक लोग आ चुके हैं . बे का दरवाजा खुला और पहले ऐक लाल कन्ठ्लन्गोट उसके पीछे एक पेट और पीछे पेट के स्वामी देशी मालिक ने प्रवेश किया.सुहास भी अपनी जगह से बैठा-बैठा ये सब देख रहा था पर उसकी निगाह तो पीछे आने वालों को ढूंड रही थी जिनके सामने उसे प्रदर्शन देना था.

तभी पीछे से गोरी चमड़ी वाले चार लोग टी-शर्ट, पजामा(लोअर) पहने दाखिल हुए . तो जनाब , यह थे सुहास के विदेशी मालिक,जिनके लिए कन्ठ्लन्गोट सन्स्क्रति का अतिक्रमण किया गया था . असल में उनके कॉन्सुलेट ने उन्हे पहले ही सूचना दे दी थी कि , भारत कि गर्मी को देखते हुए क्या पहनना ठीक रहेगा.सुहास को बहुत गुस्सा आ रहा था और उसका कंठ लंगोट उसे फाँसी के फंदे जैसा महसूस होने लगा . उसी पल उसने कुछ सोचा और बरबस हि उसका हाथ अपने कंठ लंगोट पर था.

जब कुछ देर बाद उसका प्रदर्शन शुरू हुआ,वह विदेशी मालिकों के सामने बेबाक प्रदर्शन दे रहा था ,हाँ यह बात दूसरी है कि उसका कन्ठ्लन्गोट उसकी मेज पर मायूस पड़ा उसे देख रहा था.

Monday, December 22, 2008

घुटन

रात के तीन बजे अचानक आकाश क़ी आँख खुल गयी उसका पूरा शरीर पसीने में लथपथ था , फिर वही सपना पता नही इंसान जीवन मै क्या -क्या पाना चाहता है वो एक बेहतर जिंदगी क़ी तलाश में कभी भी अपने आज से सामंजस नही बैठा पाता और हमेशा अपने कल से भागने क़ी कोशिश करता रहता है , आकाश क़ी हालत भी कुछ एसी ही हो गयी थी , उसकी शादी को पाँच साल बीत चुके थे पर इन पाँच सालों मै उसे कभी पाँच रात भी चैन क़ी नींद नसीब नही हुई थी हर रात एक ही सपना उसे झझकोर के रख देता , हर रात बंसी का मासूम चेहरा उसके सामने आ जाता जो उससे जान क़ी भीख माँगता दिखाई देता था और फिर अचानक बंसी ज़ोर-ज़ोर हँसने लगता और उसका चेहरा कठोर होता जाता
आकाश बचपन से ही प्रखर बुद्धि का स्वामी था , बीए करने के बाद सिविल सर्विसेस की परीक्षा पास की और कलेक्टर बन गया , कई शहरों में तबादले के बाद उसको आंध्र प्रदेश के गुडुर में काम करने का मौका मिला था यह शहर माइका की खदानो के लिए दुनिया भर में जाना जाता हैं इस शहर की खदानो से निकला माइका भारत सारी दुनिया में निर्यात करता है बंसी ऐसी ही एक खदान में काम करने वाले मजदूर श्रीनिवास का बेटा था , उसकी माँ उसे जन्म देते वक्त स्वर्ग सिधार गयी और तब से श्रीनिवास ने ही उसे अकेले पाला था जब आकाश गुडुर पहुँचा तो वहाँ के रिवाज अनुसार खदान मालिकों नई उसका भव्य स्वागत किया और सेवा में मुद्रा के साथ -साथ श्रीनिवास को भी उस पर अर्पण कर दिया गया
श्रीनिवास अब सुबह से आकाश के बंगले पर आ जाता , सफाई करता , खाना बनता और शाम को तीन-चार घंटे के लिए खदान में चला जाता,बंसी भी उसके साथ ही आता था और श्रीनिवास के वापिस आने तक बंगले पर ही छोटे मोटे काम करता रहता , पहले कुछ दिन तो आकाश की व्यस्तता के कारण उसका ध्यान बंसी पर गया ही नही पर ऐक दिन जब आकाश दोपहर के समय थोड़ा फ़ुर्सत में था तब उसे बंसी दिखाई दिया पसीने मैं लथपथ अपने छोटे-छोटे हाथों में कपड़ा लिए मेज की धूल झाड़ता हुआ आकाश ने प्यार से उसे अपने पास बुलाया तो वो भागता हुआ आया , हाँ बाबूजी बोलिए , क्या नाम है तुम्हारा , बंसी बाबूजी बड़े होकर क्या बनना है , खदान में काम करूँगा बाबूजी उसकी मासूमियत पर आकाश को हँसी आ गयी , पदाई करते हो , नही बाबूजी चलो में तुम्हे पढ़ाता हूँ और उस दिन से आकाश ने खाली समय में बंसी को पढ़ाना शुरू कर दिया
समय बीतता गया और बंसी के दिमाग़ मैं भी ऐक बात भर गयी की उसे पढ़ लिखकर बड़ा आदमी बनना है , श्रीनिवास भी यह देखकर खुश होता की चलो कम से कम उसके बच्चे का जीवन सुधार जायगा इसी बीच अचानक एक दिन ऐक अनहोनी हो गयी श्रीनिवास की एक दुर्घटना में मौत हो गयी और बंसी अकेला हो गया आकाश अब भी कभी -कभी उसको पढ़ाता था पर जिंदगी की दूसरी व्यस्तताओं के बीच ये क्रम भी धीरे-धीरे छूट गया शुरू में तो बंसी आकाश के बंगले में आता और खड़ा रहता पर जब आकाश उसे समय नही दे पा रहा था तो उसने भी कुछ समय मे वहाँ आना छोड़ दिया , आकाश हर रोज सोचता था की कल वो बंसी की खोज खबर लेगा पर वो कल कभी आ ही नही पाया और समय बीतता गया और बंसी की बातें खदानो के शोर में कहीं खो गयी और वो शहर भी पीछे छूट गया हाँ आज से करीब पाँच साल पहले मीडीया में ऐक बाल मजदूर की कहानी आई थी जिसकी माइका की खदान में दम घुटने से मौत हो गयी थी

Wednesday, December 17, 2008

श्रमजीवी

रात को तक-हारकर घर लौटा श्रमजीवी ,
देखता है भूखे बच्चे और जर्जर माँ बाँट जोतती.
श्रमज़ीवी को आज तनख़ाह मिली थी,
पर परजीवी भी थे वसूली को तैयार .
आठ सौ पचास रुपये मैं से अब सिर्फ़ कुछ नोट बचे थे ,
श्रमज़ीवी ने एक सौ पचास बचे रुपये खर्च किए
खाना आया , पेट भरे और एक रात और जीवन जिए |
श्रमज़ीवी आज खुश था ,इस बार परजीवी कुछ तो छोड़ गये ,
एक दिन भोजन मिला ,कल सुबह क़ी कल देखेंगे ,
कुछ मिला तो ठीक , वर्ना फिर परिवार को श्रम से सीचेंगे |

सोया हुआ शहर ( बाल श्रम )

रात्रि के अंतिम पहर में , तीव्र निद्रा में सोया शहर.
ये जान में कुछ सैर को निकला , देखा क़ी -
चटकी खिड़कियों मैं कुछ साए हिल रहे हैं ,
कुछ हाथ अभी भी कपड़ा दर कपड़ा सिल रहे हैं .

जिग्यासा देवी ने मेरे पैरों को बरबस ही उस ओर मोड़ दिया ,
रोंगटे खड़े करने वाला द्रश्य सामने गोचर हुआ ,
देखा छोटे-छोटे हाथ मशीन क़ी तरह काम कर रहे थे ,
रात के इस साए मैं अंजान कारीगरों का नाम कर रहे थे |

और तीव्र निद्रा मैं सोया शहर अब भी सोया हुआ था ,
किसे परवाह कौन सा बचपन कहाँ खोया हुआ था |
पहर ख़त्म हुआ और चहल - पहल शुरू हुई पर
शहर शायद अब भी सोया हुआ है |

Tuesday, December 16, 2008

मुझको भी आरक्षण दो !

समाज के वर्गीकरण को मिल गया नया अयाम.
आरक्षण क़ी माँग पर नित्य झंडे टंग रहे तमाम.
वर्ग,वर्ण,रंग सब "आरक्षित कोटा " जोड़ना चाहते हैं.
चटकी हुई मेढ को न जाने , कितने हिस्सों में तोड़ना चाहते हैं .
पर व्यवस्था क़ी इस धुरी में कोई मेरी माँग भी सुन लो ,
मैं इस देश क़ी मेधा हूँ कोई मुझको भी आरक्षण दो .

मैने अपने जीवन मैं दिन-रात मैं फ़र्क न किया .
जब सब जग सोया , मैने ज्ञान आत्मसात किया .
माँ ने जेवर गिरवी रखकर , शिक्षा का व्यय सहा .
बाबा रोज दफ़्तर पैदल जाते पर मुझसे कभी कुछ न कहा .
पग-पग बढ़ मैने भी ,सफलता का परचम लहराया.
अपने भविष्य का सुखद चित्रण , सदैव माँ-बाबा क़ी अश्रुत आखों में पाया .

पर आज जब में मेहनत से पढ़ लिखकर तैयार हूँ ,
द्वितीय श्रेणी सब दफ़्तर जा रहे , में ही एक बेकार हूँ .
जब-जब नौकरी माँगने ,किसी द्वार पर जाता हूँ .
आरक्षण क़ी काली छाया को स्वागत द्वार पर पाता हूँ .
विस्मित बुद्धि , शून्य मस्तिष्क , कोई तो मेरी हालत पर तरस खाओ.
या तो मुझे मुक्ति दे दो , या फिर आरक्षित बनाओ .

भूख

एक छोटा बच्चा , रोता अपनी माँ को खोजता है.
फटे टाट के कोने से अपने आँसू पोछता हुआ,
माँ खाना लाने गयी थी , टूटे झोपडे में दिया भी दम तोड़ रहा है.

बच्चे का तीव्र क्रंदन , मानों आकाश में चमकती बिजली से ताल बैठा रहा है.
तभी हस्ते हुए ठेकदार क़ी गाड़ी माँ को छोड़ती है.
अस्त व्यस्त कपड़ों के बीच खाने क़ी थैली चमक उठी ,
भूखा बच्चा आँसू पोछता, थैली पर झपटा .
हाँ भूख ही तो मिटानी थी इस माँ को ,
एक क़ी भूख मिटाकर दूसरे क़ी भूख मिटायी ,
वाह रे वाह समाज , अब करो चरित्र क़ी हसाई .

Tuesday, December 2, 2008

परिवर्तन कैसे होगा ?

डरो नही विचार करो , दंभ पर सशक्त वार करो |
सजल सपनो को आज़ाद कर, जीवन को साकार करो ||
क्यों कि अंतर आत्मा को जो जगाएगा वही परिवर्तन लाएगा ||

आगे बढ़ो , स्वतंत्र हो , शहीदों क़ी कीर्ति का गान करो |
ज़िम्मेदारियों से भागो मत , संतुष्ठी का सोपान करो |
क्यों कि जो भारतीय , भारतीयता समझ जायगा , वही परिवर्तन लाएगा ||

भीतर - बाहर क़ी लड़ाइयाँ ख़त्म कर , एक होने का जतन करो |
नैतिकता का पालन कर , बाँटने वाली शक्तियों का ध्वंस-पतन करो ||
क्यों जो भारतीय ,दूसरे भारतीय के दुख पर अश्रु बहाएगा ,वही परिवर्तन लाएगा ||

क्रोध को भूलो मत ,पर साथ -साथ स्रजन कि दिशा में नव निर्माण करो |
प्रश्न करो पालकों से , और उत्तर मिलने तक उनका जीवन हाड़ करो ||
क्यों कि जो भारतीय , प्रश्न करना सीख जायगा , वही परिवर्तन लाएगा ||

जोड़ते जाओ हाथों से हाथ , मानव श्रंखलाएँ तैयार करो |
जाति, धर्म , जिला , राज्य से पहले , भारत माँ से प्यार करो ||
क्यों कि जो भारतीय , अखंडता का महत्व समझ जायगा , वही अखंड भारत बनाएगा, वही परिवर्तन लाएगा ||

"ज़य अखंड भारत "

Sunday, November 30, 2008

आतंकवादियों के नाम एक भारतवासी क़ी चिट्ठी

ध्वंस,विध्वंस की आवाज़ों के बीच
में अब जाग रहा हूँ |
अपनो के लहू से भींगी धरती को देख
नवभारत के सपने पाग रहा हूँ ||

आतंक की पराकाष्ठा दिखा ,
ये न समझो कि में डर जाऊँगा |
गोलियाँ , भाषण कितने भी दे लो ,
पर ये ना समझो कि में मर जाऊँगा ||

में जीऊँगा इस धरती पर,
जब तक एक भी पुष्प खिलेगा |
में जीऊँगा जब तक ,
एक भी शहीद अम्रत्व से मिलेगा ||

तुम चाहें जितनी भी कोशिश कर लो,
परिवर्तन अब नही रुकेगा |
बाँध लो जितने बाँध बाँधने हो ,
पर यह ज्वार तुमसे न थमेगा ||

मुझे अपना चैन वापिस चाहिए,
और मुझे पता है कि क्या करना है |
तुम अपना फ़ैसला करो ,
कि सुधारना है या सिधरना है ||

ज़य अखंड भारत
" एक भारतवासी"

Sunday, November 16, 2008

बाल दिवस पर विशेष

आज सड़क पर एक रैली जा रही थी |
सरपट-सरपट दौड़ भाग, बाल दिवस की खुशियाँ फैली जा रही थी |
अभिभावक अपने नौ निहालों को देख मंद-मंद मुस्कुराते थे |
खुश हो उनके भविष्य की सुखद कामना लिए , अनूठे सपने सजाते थे |

पर इन सब से दूर , दो छोटे-छोटे हाथ , गर्म भट्टी मैं लोहा पिघला रहे थे |
भूली - बिसरी गलियों मैं अपनी , कोमल देह तपा रहे थे |
जुलूंस जब पास से निकला तो हाथ थम गये | और वो खिड़की से झाँकने लगे |
उन नन्ही नीरस आखों को देख , एक बच्चा दूसरे से कहता है |
देख लगता है उस कोठरी मैं भी बचपन रहता है |

Tuesday, November 11, 2008

विवशता

रात ग्यारह बजे की लोकल ट्रेन विकरोली स्टेशन पर आकर रुकी और अनीश अपने डिब्बे से उतर कर धीरे-धीरे घर की तरफ चल पड़ा ,उसकी यह रोज की आदत थी , वह स्टेशन के पास ही रहता था और शाम को अक्सर अपनी धुन में सवार, पैदल ही घर जाता था. उस दिन ठंड कुछ ज़्यादा थी और सड़क पर ज़्यादा भीड़-भाड़ भी नहीं दिखाई दे रही थी.

अचानक चलते-चलते उसे सड़क किनारे, एक लॅंप पोस्ट के नीचे कुछ साया सा हिलता दिखाई दिया, पहले तो अनीश ने वहाँ से चुप चाप निकल जाना ठीक समझा पर जब उस साए ने करुन आवाज़ में उसे पुकारा तो वो ठिठक गया . वह कोई सत्तर साल की एक अर्धविच्छपत महिला थी जो अपने आप मे ही कुछ बड़बड़ा रही थी . अनीश उसके पास पहुँचा तो वो कुछ सहम सी गयी.

देखने वालों के लिए एक अजीब तमाशा था , एक नये जमाने का जीन्स-शर्ट पहना हुआ लड़का , फटे कपड़ों में बैठी एक अर्धविच्छपत बुढ़िया के पास , घुटनो के बल बैठा कुछ समझने को कोशिश कर रहा था. वह बुढ़िया हाथ में ऐक सेब लिए उससे कुछ कहने की कोशिश कर रही थी, पर बहुत दिमाग़ लगाने के बाद भी अनीश उसकी बात समझ नही पा रहा था. कहते है जब भूंख लगती है तो पेट खुद ही बोलने लगता है . जब बुदिया ने अपने पेट की तरफ इशारा किया तो अनीश को समझ में आ गया की उसे भूंख लग रही है , पर हाथ में सेब , फिर भी ये कैसी विवशता थी ?

अचानक , अनीश के दिमाग़ में कुछ आया और वो वहाँ से उठ कर चल दिया, देखने वालों के लिए भी तमाशा ख़त्म हुआ पर कुछ देर बाद वह नीरज के साथ मोटर साइकिल पर वापिस आया,उसके हाथ में एक ब्रेड का पैकेट और चाकू था .अनीश ने बुढ़िया के हाथ से सेब लिया और उस बिन दाँतों की काया को , सेब काटकर खिलाने लगा. इसके साथ बुढ़िया की विवशता का अंत हुआ और देखने , दान देने वालों को भी एक सीख मिल गयी.

Saturday, October 18, 2008

आधुनिक भारत का धर्म

ट्रेन पूरी गति से चली जा रही थी,सेकेंड क्लास के उस डिब्बे में चर्चा अपने चरम पर पहुँच चुकी थी,एक से एक बुद्धजीवी अपने तर्क रख रहे थे आप लोगों के यहाँ बच्चे बहुत तेज होते है,एक तमिल महाशय सरदारजी को समझा रहे थे, नहीं जी यह ग़लत बात है हमारे यहाँ के बच्चों को आधुनिक कह सकते हैं पर तेज कहना सही न होगा,एक बनारसी भैईयाज़ी,सरदारजी के समर्थन में कूद पड़े यह सुनकर अब तक शांत बैठे एक तेलगु महाशय भी जोश में आ गये और बोले की हमारे यहाँ से भी कई बच्चे बाहर पढ़ने जाते है पर,भारतीयता की तहज़ीब नही भूलते,सच्ची भारतीयता सिर्फ़ दक्षिण में ही है

सब लोग अपने-अपने तर्क रख रहे थे,सरदारजी ने अपना एक किस्सा बताना शुरू किया ,की कैसे कुछ सालों पहले जब वे मद्रास गये थे तो उन्हे कुछ रिक्शे वालों ने लूट लिया था ,और तब से उन्होने कसम खा ली, कि जब तक होगा ,मद्रासियों से बचकर रहेंगे अब तमिल महाशय भी भड़क गये वो बोले केंद्रीय सरकार भी हमारे साथ ऐसा ही बर्ताब करती है,सब कुछ उत्तर के लोगों में ही बँट जाता है और हमारे बच्चों को नौकरी भी नही मिलतीं हैं , नही ऐसी बात नही है,नौकरियाँ हमारे यहाँ भी कम हो रही है पर हमारे बच्चों को शुरू से ही मेहनत कि आदत होती है बनारसी भैया जी फिर बीच में टपक पड़े

आप मद्रासियों कि एक आदत होती है कि अगर आप को हिन्दी आती है तो भी आप नही बोलते और खास तौर से हम उत्तर भारतीयों कि तो बिल्कुल भी मदद नहीं करना चाहते ,सरदार जी तेलगु महाशय से कह रहे थे , और आप उत्तर भारतीयों कि भी एक आदत होती है कि तमिल ,तेलगु,मलयालम सब आपको मद्रासी ही दिखाई देते है,अगर मैं आपको सरदार कि जगह लाहौरी या अमृतसरी कहूँ तो ?

इसी बीच, उनके डिब्बे मैं ऐक आधुनिक सा दिखने वाला नौजवान आकार बैठ गया वह कनों मैं आइपॉड लगाए हुए था,लंबे बाल और फॅन्सी कमीज़,पाजामा पहने ,वो अमेरिकी सभ्यता का कोई आधुनिक भारतीय अवतार लग रहा था बबलगम चबाते हुए उसने सब कि तरफ मुस्कुरा कर देखा पर किसी ने भी उसकी मुस्कुराहट का जवाब नही दिया अब हमारे चारों बुद्धजीवी कम से कम किसी बात पर तो सहमत थे कि यह लड़का किसी को भी पसंद नही आया,चारों ने अपनी चर्चा जारी रखी और वो लड़का बस उनकी बातें सुनकर मुस्कुराता रहा

ढायं-ढायं,इससे पहले कोई कुछ समझ पाता दो गोलियाँ चल चुकीं थी,तमिल भाई सरदार जी के पीछे से छुपकर उसे देख रहे थे और तेलगु महाशय भैया जी को थामे खड़े थे अगर वह तेज़ी से खड़ा नही होता तो बदमाश क़ी गोलियाँ उन चारों में से किसी को भी लग सकती थी सरदार जी का बिना सोचे-समझे किए गये गुस्से ने बदमाश को भड़का दिया था और उसने पिस्टल निकाल ली , वो तो भला हो कि वो आधुनिक लड़का बीच में आ गया और गोली उसने अपने उपर झेल ली,उसकी अचानक क़ी गयी इस हरकत से बदमाश भी घबरा गया और सबको धक्का देकर,डब्बे से कूद कर भाग गया

अस्पताल में चारों लोग उसके बेड के पास खड़े थे,डॉक्टरों ने उस के घर वालों को फोन कर दिया था कुछ देर बाद वे भी आ गये , उसके पिता सरदार और माँ तमिल थी और यह लड़का एक कॉल सेंटर में काम करता था और अपने एक मलयालम दोस्त के साथ बंबई में कमरा लेकर रहता था

Monday, October 13, 2008

पंगत की दावत

रमेश की बहन की शादी होने वाली थी और वो पूरे पाँच साल बाद अपने शहर वापिस आ रहा थाअपनी नौकरी के दौरान उसने बहुत से देश घूमे , तरह-तरह की सभ्यताओं को समझा और अंत मैं अमेरिका को नमस्कार कर वहाँ बस गया,पिछले दो साल से वो अमेरिका मैं ही था और अब तो वहाँ की एक जानी मानी सूटेड-बूटेड हस्ती बन चुका था रमेश वापिस आया तो एरपोर्ट पर मझले चाचा उसे लेने आए,और रमेश बचुआ कैसे हो ?,बहुत देर लग गयी,का फ्लाइट लेट हो गयी थी ? उन्होने रमेश पर प्रश्नों की बौछार कर दी रमेश हतप्रभ था, उसे इतने गर्मजोश स्वागत की उमीद नही थी या शायद पाँच साल बाद किसी ने उसे बचुआ कहा था

मझले चाचा का बेटा गोलू एरपोर्ट के बाहर गाड़ी लेकर खड़ा था,उसने लपक कर रमेश के पैर छुए और इससे पहले की रमेश कुछ समझ पता वो रमेश का समान गाड़ी में रख रहा था उसके बाद दिल्ली से मेरठ तक के रास्ते में चाचा , रमेश से तरह-तरह की बातें पूछते , बताते रहे और वो हूँ,हाँ में जबाब देता रहा उसके मन मै तो अलग ही उधेड़ बुन चल रही थी,रास्ते मै आने वाली हर-सड़क ,हर -गली की तुलना वो अमेरिका से करता,और फिर सोच में डूब जाता करीब एक घंटे बाद वे मेरठ पहुँच गये अब उसे ये शहर बहुत अलग-अलग सा दिखाई दे रहा था,जो अप्सरा पार्क उसके बचपन के दिनो की जन्नत था ,आज उसके सामने से निकलते हुए वो उसे पहचान भी नही पाया

दरवाजे पर माँ,बाबूजी उसका इंतजार कर रहे थे , कुछ पड़ोसी भी अपने छज्जों मै उसे देखने के लए खड़े थे जैसे ही गाड़ी घर की गली के मोड़ पर पहुँची ,लाला आ गयो,लाला आ गयो,सब तरफ शोर मच गया अरे हाँ, अब रमेश को याद आया उसका बचपन का नाम लाला ही तो था खैर छोटी-मोटी पूजा के बाद लाला (रमेश) घर के अंदर आ गया माँ ,मौसी, सबने उसके पतले होने की शिकायत करते हुए शुद्ध देसी वाणी मैं अमेरिका को कई गलियाँ दे डालीं पूरा घर रिश्तेदारों से भरा हुआ था , कमली मौसी,छज्जू काका,सेवला वाले ताउजी ,करीब -करीब सभी लोग आ चुके थे वो तो भला हो गोलू क़ा की उसने उपर छत वाला कमरा रमेश के लए सॉफ करवा दिया था और रमेश को आराम करने के लए वहाँ भेज दिया गया

शाम को रमेश अपने कमरे मै अकेला लेटा था और,बाहर लोगों के बात करने की आवाज़ें आ रही थी बीच-बीच मै किसी के ज़ोर से हँसने की आवाज़ आती तो रमेश झुंझला जाता ये लोग इतनी सी बात मै कितने खुश हो रहे हैं ,पता नही इस देश क़ा क्या होगा अनगिनत विचार उसके दिमाग़ को झझकोर रहे थे और उसने फ़ैसला किया की कल से वो गुड्डी की शादी क़ा सारा काम संभाल लेगा रात को वो , बाबूजी के पास गया और उनसे शादी के इंतज़ामो के बारे मै पूछा,लगभग सब कुछ तय हो चुका था , बस दावत के बारे मै फ़ैसला लेना बाकी था बाबूजी ने रमेश को बताया की उन्होने पाँच कहारों से बात कर ली है जो पंगत को खाना परोसेंगे अब रमेश की हालत अजीब हो गयी, तो क्या बाबूजी ,गुड्डी की शादी मै पंगत की दावत करवा रहे थे

अगले दिन की सुबह , मझले चाचा,बाबूजी,गोलू,सेवला वाले काका सब साथ बैठे हुए थे और रमेश उन सबको पंगत की दावत के नुक़सानो पर व्याख्यान दे रहा था , आख़िर इतने परोसने वाले कहाँ से आएँगे और गंदगी भी बहुत हो जाएगी पर बचुआ परोसन को तो बहुत लोग तैयार हो जाएँगे, हमार परिवार क़ा रुतबा ही काफ़ी है --- मझले चाचा बीच मै बोले सेवला वाले काका ने भी अपना तर्क रखा, जो स्वाद ,सकोरे मै परोसे रायते मै है वो कहीं और कहाँ और लगा कि इतना बोलकर वे स्वाद की कल्पना मै खो गये मगर आप लोग समझते क्यों नही , मेरे काई दोस्त शादी वाले दिन ही अमेरिका से आने वाले है ,और ये पंगत की दावत मेरी समझ मै नही आ रही काफ़ी देर तक बहस चलती रही पर रमेश के तर्क उन लोगों कि समझ मै नही आए और पंगत कि दावत ४-१ से विजयी घोषित हो गयी

रमेश को मन ही मन बहुत गुस्सा आ रहा था कि क्यों उसने अपने अमेरिकी दोस्तों को शादी मै बुलाया,पर वो अब कुछ कर भी नही सकता था , खैर उसने अपनी ओर से उन लोगों के लिए, मेरठ के सबसे अच्छे होटेल मै कमरे बुक करवा दिए २६ जुलाई, शादी क़ा दिन भी आ गया,रमेश के सभी अमेरिकी दोस्त समय से आ गये और सबको सम्मान के साथ होटल मै टिका दिया गया ९ हलवाइयों क़ी टीम २ दिन से काम में लगी हुई थी और शाम को सात बजे पहली पंगत को बिठाने क़ा निर्णय किया गया रमेश अपने परिवार कि रस्म के अनुसार , पगड़ी लगाए सबका स्वागत कर रहा था तीस-तीस लोगों कि पंगत को बैठाने क़ा इंतज़ाम किया गया था और सेवला वाले काका खुद ऐक कुर्सी डाले परोसने क़ा इंतज़ाम देख रहे थे

हेल्लो स्टीव,माइरा ! कॉंग्रेट्स रमेश , रमेश के दोस्त आ चुके थे और अब उसकी साँसें काबू से बाहर हुई जा रही थींसका मन कह रहा था क़ी भगवान कुछ ऐसा कर दें कि यह लोग स्वयं ही खाने क़ा कार्यक्रम रद्द कर दें रमेश सब को स्टेज पर गुड्डी से मिलवाने को लेकर गया , कुछ देर बाद जय-माला क़ी रस्म भी हो गयी और रमेश क़ी सारी प्रार्थनाओ के विपरीत स्टीव खाने के इंतज़ाम के बारे मै पूछ रहा था अब नज़ारा मजेदार था ,१५ फिरंगी और १५ भारतीयों क़ी एक मिली जुली पंगत खाने के लिए बैठी हुई थी सबसे पहले इत्र लाकर उनके मेजों पर छिड़का गया और फिर मशीन क़ी तरह चलते हाथों से धड़ा-धड़ पत्तल ,सकोरे लिए कहारों को टोली आने लगी पूड़ी-पूड़ी बोलते हुए गोलू के दोस्त भी यहाँ से वहाँ भाग रहे थे सब परोसने वाले दुगने जोश से काम कर रहे थे आख़िर ,गोरी चमड़ी वालों को पंगत परोसने क़ा मौका दुर्लभ ही था आई वॉंट सम रायता , स्टीव एक कहार से बोला , ओ भैया चला रायता, और फटा-फट रायते क़ी बाल्टी पंगत मै घूमने लगी इमरती और काजू क़ी बरफी भी पीछे-पीछे चलती रहीं सारे अमेरिकी भोजन करके तृप्त हो गये और जब उठने क़ा समय आया तो उन्हे पान परोसा गया पंगत क़ी दावतों मै पान ज़रूरी नही होता , पर मझले चाचा ने बचुआ के खास मेहमानों के लिए इंतज़ाम करवाया था

ये हमारी जिंदगी क़ा बेस्ट डिनर होता रमेश हम इंडिया मै बहुत शादी अटेंड किया पर इतना मज़ा कभी नही आया रमेश को सब धन्यवाद दे रहे थे और बाबूजी और मझले चाचा दूर खड़े यह सब देखकर मुस्कुरा रहे थे

Monday, October 6, 2008

हुलिए की हलचल

चारों तरफ अफ़रा-तफ़री का माहॉल था,सब लोग इधर-उधर भाग रहे थे | कनाट प्लेस का अमन चौक,खून और माँस के टुकड़ों से पटा पड़ा था | कुछ देर पहले जहाँ नेता जी के बेटे की सभा चल रही थी वहाँ अब कुछ टूटी चप्पलें,बिखरे झंडे और गंधक का धुआँ दिखाई दे रहा था|पाँच मिनिट पहले जिस पंडाल मे देश की सुरक्षा की बात की जा रही थी वो अब सिर्फ़ एक राख का ढेर रह गया था |

ट्रिन-ट्रिन सारे शहर मे घंटियाँ बजनी शुरू हो गयीं,सारा सरकारी तंत्र सकते मे आ गया,हालाँकि अभी नुकसान की पुष्टि नही हो पाई थी पर शायद कुछ आम लोगों के साथ नेता जी का बेटा भी गंभीर रूप से घायल हो गया था,उसके चेहरे पर काफ़ी चोट आई थी और डॉक्टर कुछ भी नही बता रहे थे|

नेता जी बदहवास से डॉक्टरों पर चिल्ला रहे थे,कुछ साथी नेता गण भी उन्हें ढाढ़स बंधाने के लिए साथ आ गये थे |पाँच मिनिट बाद सड़क पर हर तरफ सायरन बजाती गाड़ियाँ इधर से उधर दौड़ रही थी | आईजी से लेकर हवलदार तक सब पुलिस वालों के पेट में पानी हो गया था,दूसरी ओर नेता जी के समर्थक भी सड़कों पर उतार आए ,सारे टीवी चॅनेल्स पर आतंकबाद विरोधी चर्चा शुरू हो गयीं वहीं कुछ युवा समर्थक नेता जी के पुत्र की सलामती के लिए हवन करवाने लगे|जंग खाया हुआ सरकारी तंत्र आज किसी रेसिंग कार की तरह दौड़ रहा था|

कुछ देर बाद सब कुछ शांत हो गया | नेता जी भी घर चले गये और सब कुछ सामान्य होने लगा ,अब कोई भगदड़ नही थी | तीन पुलिस वालों का निलंबन आदेश भी वापिस ले लिया गया | दरअसल भागादौड़ी मैं कुछ लोगों से ग़लती हो गयी , नेताजी का पुत्र तो घायल ही नही हुआ था वह तो कोई आम आदमी था जिसका हुलिया नेता जी के पुत्र जैसा था |

Friday, October 3, 2008

घर का बोझ

भाई साहब, इस बार कमलानगर क़ी क्रिकेट टीम मे मेरा चयन होना पक्का है,राजेश मेरी दाढ़ी बनाते हुए मुझे बता रहा था | उसकी हमेशा कि यही आदत थी जब भी मैं उसकी दुकान पर पहुँचता था,हर बार एक नयी कहानी मेरा इंतजार कर रही होती पता नहीं क्यों पर वो मुझसे एक अपनापन सा मानने लगा था | दरअसल उसका भाई मेरे एक परिचित के विद्यालय मे पढ़ता था और मेरी सिफारिश कि वजह से उसे शुल्क में कुछ रियायत मिल गयी ,शायद मेरी यही मदद राजेश के दिल पर असर कर गयी और वो मुझसे प्रेम मानने लगा |

राजेश एक अच्छा क्रिकेटर रह चुका था ,राजपुर क़ी टीम ने काफ़ी मॅच सिर्फ़ उसकी बोलिंग क़ी वजह से ही जीते थे,पर उसके पिता क़ी मृत्यु के बाद,घर का बोझ और छोटे भाई क़ी पढ़ाई का खर्च उसके कंधों पर आ गया | पैसे क़ी कमी के कारण उसे अपने क्रिकेट का शौक छोड़ना पड़ा और बॉल पकड़ने वाले हाथों मे वक्त ने कैंची थमा दी पर आज भी जब भी उसे दुकान से छुट्टी मिलती,वो छोटे लड़कों के साथ क्रिकेट खेलने चला जाता और फिर हर मॅच क़ी एक नयी कहानी मेरे लिए तैयार हो
जाती |

उसकी एक बात मुझे हमेशा बहुत पसंद आती थी,उसने अपने ग्राहकों को क्रेडिट कार्ड वालों क़ी तरह अलग- अलग वर्गों मे बाँट रखा था और उसे पता था कि किस ग्राहक से कितना पैसा निकाल सकतें हैं | एक बार उसने मुझे बताया था क़ी कैसे उसने एक आदमी का 90 रुपये का काम कर दिया जो सिर्फ़ 5 रुपये क़ी दाढ़ी बनवाने आया था | समय ऐसे ही चलता रहा और उसकी कहानियाँ और भी मजेदार होती गयीं | इसी बीच,हमारे इलाक़े मे एक ब्रांडेड सलून भी खुल गया और मेरे ज़्यादातर दोस्तों ने वहाँ जाना शुरू कर दिया,वे सब अक्सर मेरा मज़ाक बनाते और मुझे कंजूस कहते पर मुझे पता था कि उस सलून मे राजेश और उसकी मजेदार बातें नहीं मिलने वाली और मैं उसका लालच नहीं छोड़ सकता था |

वो एक शनिवार का दिन था और उसकी छोटी सी दुकान पर ज़्यादा भीड़ नही थी,राजेश मुझे सामने से आता देखकर चहक उठा और एक आदमी की दाढ़ी आधी छोड़कर उसने मेरे लिए स्टूल साफ करके लगा दिया | कुछ देर बाद जब उसका काम ख़त्म हुआ तो उसने मुझसे पूछा कि भैया जी क्या आप आज अपने दस मिनिट मुझे दे सकते हो,मुझे अपने भाई के लिए एक फॉर्म भरवाना हैं | मेरे जवाब देने से पहले ही शायद उसे पता था कि मे तैयार हो जाऊँगा ,उसने फटाफट सामने वाली दुकान से मेरे लिए चाय मंगवा दी और दराज से निकालकर एक फॉर्म मेरे हाथ मे थमा दिया | उत्तर प्रदेश प्रविधिक यूनिवर्सिटी , तो वो अपने भाई को प्रादेशिक यूनिवर्सिटी से इंजिनियरिंग करवाना चाहता था | उसने मुझे बताया कि,मैं अपने भाई कि जिंदगी सुधारना चाहता हूं और उसे पढ़ा - लिखा कर आप जैसा बनाना चाहता हूं |

आज मेरी समझ मे आया कि वो मुझसे इतना प्रेम क्यों मानता था,उसे मेरे अंदर कहीं ना कहीं अपने भाई का भविष्य दिखाई देता था | खैर मैने वो फॉर्म भर कर उसे दे दिया ,उसका चेहरा खुशी से चमक उठा हालाँकि मैं मन ही मन सोच रहा था कि ये पागल फॉर्म भरने को ही इंजिनियरिंग मान रहा है,पता नही यह इंजिनियरिंग का सालाना शुल्क भी जमा कर पाएगा या नही |

समय अपनी चाल चलता गया और में अपनी पढ़ाई मे व्यस्त हो गया,मेरा यह कॉलेज का आख़िरी साल था और किसी भी कीमत पर मैं यूनिवर्सिटी क़ी मैरिट सूची मे आना चाहता था | समय बचाने के लिए अब दाढ़ी बनाने का काम घर पर ही होने लगा,इस बीच किसी ने मुझे बताया कि राजेश कि शादी तय हो गयी पर मे अपनी व्यस्तता के कारण उससे मिलने ना जा सका और ये बात स्म्रति मे धूमिल हो गयी |

कॉलेज ख़त्म हो गया और मैने आगे काम के लिए दिल्ली जाने का निर्णय किया | जाने से पहले मे अपने सब दोस्तों से मिलना चाहता था और अनायास ही मेरे मन मैं राजेश का ख़याल आया ,क्यों न एक आख़िरी बार दाढ़ी बनवा ली जाए | असल मैं मेरे मन मे जिग्यासा थी कि उसकी शादी का क्या हुआ होगा ,क्रिकेट चल रहा होगा या नही वग़ैरह - वग़ैरह | इन्ही सब प्रश्नो को दिमाग़ मैं लिए,मैं उसकी दुकान पर पहुँचा,पर अब वहाँ कोई नया लड़का काम कर रहा था | ये लड़का काफ़ी हद तक राजेश जैसा लग रहा था पर शर्तिया राजेश नही था | जब मैने उससे राजेश के बारे मे पूछा तो उसने बताया क़ी भैया अपनी शादी का कार्ड देने झाँसी गये थे और लौटते मे ट्रेन से गिर कर उनकी म्रत्यु हो गयी और उनके बाद अब
मैने घर का बोझ संभाल लिया |

(ये एक सच्ची कहानी है )

Tuesday, September 30, 2008

गरम खून

आज फिर गुजरात में तीन धमाके हुए और तेईस लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा | हर एक चॅनेल घुमा फिरा कर बार-बार यही खबर दिखा रहा था | आशीष अभी-अभी दफ़्तर से थका हारा घर लौटा था और सोफे पर बैठकर अपने जूतों के फीते खोल रहा था | पता नही इस देश का क्या होगा , चाय लाते हुए शिप्रा बोली | देखो ना अब गुजरात मैं धमाके हो गये ,पता नही आगे क्या होगा , शुक्र है की अभी तक हमारा शहर आतंकवाद की आग से बचा हुआ है | आशीष अब तक पूरी खबर छान चुका था , टीवी पर किसी बच्चे के बारे में बता रहे थे जिसका सारा परिवार धमाके की भेंट चढ़ गया था |

सब कुछ देख कर आशीष का खून खौल रहा था , शिप्रा इन लोगों को तो खुले आम फाँसी दे देनी चाहिए | देखो पता नही छोटे-छोटे बच्चों पर भी दया नही आती इन्हे | इतनी देर में आशीष के दोस्त सुनील का फोन आया ,वो भी इन धमाकों से बहुत नाराज़ था | आशीष और सुनील अक्सर आतंकवाद और अन्य सामाजिक विषयों पर चर्चा किया करते थे | अब तो हमें ही कुछ ना कुछ करना पड़ेगा याद है कॉलेज के दिनों में हम ग़लत बात के विरोध में सबसे लड़ जाते थे पता नही हमें अब क्या हो गया है | शिप्रा भी उन दोनो की बात सुन रही थी और अपने पति के कॉलेज के दिनो की कल्पना कर रही थी |

दोनो की काफ़ी देर तक फोन पर ही चर्चा चलती रही , बीच - बीच में शिप्रा टीवी के चॅनेल बदलती तो आशीष का गुस्सा और भी बढ़ जाता | अब तक कुछ नेता बयान देना भी शुरू कर चुके थे और अलग -अलग पार्टियाँ , अलग-अलग पार्टियों को धमाके का कारण बता रही थी | सुनील सबसे पहले तो हमे इन नेताओं का ही कुछ करना चाहिए , इन्होने ही देश को बर्बाद कर दिया है , अब क्या है एक कमेटी बना देंगे और हो गया काम , सही कह रहे हो आशीष | खैर चलो कल मिलते है तब बात करते हैं , अब कुछ तो करना ही पड़ेगा |

अगले दिन समाचार मिला कि पोलीस ने कुछ आतंवादियों को मार गिराया और उसमे पोलीस के भी कुछ जवान शहीद हो गये | शाम को आशीष क़ी कॉलोनी वालों ने शहीदों को श्रधांजलि देने कि लिए एक मौन सभा रखी थी पर आशीष नही दिखाई दे रहा था | पता किया तो मालूम चला कि वो और सुनील अपने ऑफीस के लोगों के साथ कोई पिक्चर देखने गये हुए थे |

Thursday, September 25, 2008

मास्टर जी

तड़ - तड़ , गीली नीम की हरी डंडी मेरे हाथ पर पड़ी और में दर्द और कराह उठा आज एक बार फ़िर में अपना पाठ याद करके नही आया था और मास्टरजी मेरी सेवा कर रहे थे पता नही नियति ने किस पाप का बदला लेने के लिए उन्हें हमारे विधालय में भेज दिया था , वे हमेशा कहते थे कि अगर में ऐसे ही पढ़ाई से जी चुराता रहा तो एक दिन किसी दुकान पर पंचर जोड़ना पड़ेगा और में हमेशा घर के रास्ते में पड़ने वाली पंचर की दुकान को देखकर अपना भविष्य चित्रित किया करता था हमारी शरारती टोली हमेशा उन्हें परेशान करने के नये -नए तरीके ढूँढती रहती थी , कभी हम उनकी ऐनक छुपा देते तो कभी उनकी कुर्सी पर गोंद फैला देते, पर वे भी किसी हठी बालक की तरह जमे रहे और उनके अनुशाशन के डंडे से हमारी चटक भावनाओं का दमन होता रहा भूगोल और विज्ञानं के पाठों के बीच घूमते -घूमते मेरा बचपन घुमावदार पहाडी पर चलती किसी ट्रेन की तरह कब बीत गया पता ही नही चला और एक दिन मैंने अपने विधालय से विदा ली उस दिन मैंने पहली बार मास्टरजी को हम पर गुस्सा होते नही देखा वे आज शांत थे जैसे कोई नाविक, नाव को किनारे पर लगा जाते हुए मुसाफिरों को देख रहा हो

समय अपनी चाल से चलता रहा और धीरे - धीरे कई साल बीत गए और हम सब लोग अपनी - अपनी राह में व्यस्त होते गए कंप्यूटर और रोकेट की दुनिया में अब गावों के स्कूल की यादें कहीं धूमिल हो गई मैंने दुनिया में बहुत नाम कमाया एक प्रसिद्ध लेखक बनकर में अमेरिका में बस गया , अमेरिका सपनो का देश था और में अपने सपनो में खो गया हमारे कई दोस्त भारत में ही रह रहे थे और वहां के समाचार मिलते रहते थे पर कभी भी मास्टर जी की कोई सूचना नही मिली या यों कहिये ,कभी ध्यान ही नही आया

नवंबर मे राकेश क़ी चिट्ठी आई , वो भी हमारे बचपन का साथी था उसके बेटे क़ी शादी तय हो गयी थी और सयोंग से बारात भी हमारे गावों मे जाने वाली थी इतने सालों बाद आज मुझे एक अजीब से आनंद क़ी अनुभूति हो रही थी राकेश के बेटे क़ी शादी के रूप में भाग्य ने मुझे एक सुअवसर दिया था अपने बचपन से मिलने का हालाँकि उसी समय मैं ,मुझे कुछ विद्वानों से मिलने यूरोप जाना था पर मास्टर जी से मिलने की मिलने क़ी ललक सब पर भारी पड़ी मैंने अपनी पत्नी को समझाया और दो दिन बाद हम लोग भारत क़ी उड़ान पर थे

तय समय पर हम गावों मैं पहुँच गये,बारात का जोरदार स्वागत हुआ और राकेश भी खुश था क़ी मेरे जैसा जाना माना व्यक्ति उस के बेटे क़ी शादी मे आया , पर मेरी आखें भीड़ मैं मास्टर जी को खोज रही थी, पता नही तीस साल बाद वे कैसे दिखाई देते होंगे , पता नही अब भी गुस्सा करते होंगे या नही , अनगिनत सवाल मेरे दिमाग़ में गूँज रहे थे तभी एक छोटे बच्चे ने आकर मुझसे पूछा क्या आप ही विनय काका हो , जब मैने हाँ में सिर हिलाया तो उसने पर्दे के पीछे खड़े एक बुजुर्ग को आने का इशारा किया वो मास्टर जी ही थे शायद उन्हे शादी मैं नही बुलाया गया था

तुम अब बहुत बड़े हो गये हो , तुम्हारे बारे में बहुत सुनता रहता था तुम गावों आए हो पता चला तो खुद को रोक नही पाया और मिलने चला आया मेरा पोता तुम्हे बहुत मानता है ,वे कहते हुए मेरी तरफ आ रहे थे पर मैं वहाँ पर नही था मैं तो उनके चरणों को अपने आंसूओं से धो रहा था

Wednesday, September 24, 2008

कोसी का सच

आज चार दिन हो गये ,बारिश रुकने का नाम ही नही ले रही थी | कुन्नू ने बाहर से आकर अपना छाता खूँटी पर तंग दिया , वो पूरा भींगा हुआ था ,उसकी फटी हुई नेकर और शर्ट पानी से तरबतर थी | बाबा का कुछ पता नही चला माई,वो कमरे में अंदर घुसते हुए बोला | कुन्नू के बाबा गावों के सरपंच थे और गावों के कुछ लोगों के साथ दो दिन पहले कोसी के तटबंध जाँचने गये थे पर तब से उनका कोई सुराग नही था | दूसरी ओर कुन्नू की माँ , कुन्नू और उसके तीन छोटे भाई
बहनो के साथ बारिश की भयवता के बीच उनका इंतजार कर रही थी |

वैसे साल के इस समय यहाँ बारिश होना नयी बात नही थी पर इस बार बारिश ने सारे रेकॉर्ड तोड़ दिए , लगातार बारिश से नदी का जल स्तर बढ़ता जा रहा था और तटबंधों की ख़तरा उत्पन्न हो गया | किसी ने बरुआ के खेत के पास तटबंध में दरार आने की सूचना दी और कुन्नू के बाबा ,गावों के कुछ कुशल कारीगरों को लेकर उस तरफ निकल गये |
शाम तक सब लोग वापिस आ गये , पर कुन्नू के बाबा और चार लोगों का कुछ पता नही चल रहा था |

कुन्नू के माँ एक सीधी- साधी महिला थी , उसे बस इतना याद रहा कि एक बार पति ने कहा था कि अगर कभी बिछड़ गया तो घर पर ही आऊंगा और वो इसी भरोसे अपने पति का इंतजार कर रही थी | बारिश का पानी अब घर क़ी देहरी तक पहुँच चुका था उसके छोटे-छोटे बच्चे उससे चिपके, खाट पर सोए पड़े हुए थे | धमाक , एक ज़ोर क़ी आवाज़ हुई और कुन्नू भागता हुआ अंदर आया , माँ नीम का पेड़ गिर गया , सारे बिजली के तार भी टूट गये | उसने एक करवट अपने बच्चों क़ी तरफ देखा और कुन्नू से बोली , जा जाकर मुन्नी को बोल क़ी माँ बुला रही है , जल्दी आए |

मुन्नी उनके पड़ोस में रहने वाली एक विधवा महिला थी जिसका पति पिछले साल की बाढ़ में स्वाह हो गया था , कुन्नू भागा भागा गया और मुन्नी को बुला लाया , अब दोनो औरतें जानती थी की उन्हे क्या करना था , कोसी के तट बँधी सभी गावों वालों को पता था क्या करना है , रात भयावाह थी पर अब वो दो थी.

कुन्नू की माँ अब एक ही रात में सीधी-साधी गवाँर महिला से समझदार हो चुकी थी , उसे पता था कि वहाँ रुकना या कुन्नू के बाबा का इंतजार करना अब सम्भब नही था , उसे फ़ैसला लेना था , कुछ देर बाद दौनो महिलाएँ एक खाट के दो पाओं को सर पर रखे और अपने बच्चों को उस पर बिठाए आधी कमर तक के पानी में निकल पड़ी , बाहर बोहोट तेज बिजली चमक रही थी पर उनके चेहरे पर चमक थी ऐसा प्रतीत हुआ मानो आसमान भी अभिमान को चूम रहा हो |

उन दो गवाँर महिलाओं को जो ठीक लगा उन्होने किया , अगले दिन का नज़ारा वही पुराना तमाशा था , नेता आ रहे थे - नेता जा रहे थे , कोई हैली-कॉपटेर से जायज़ा ले रहा था और कोई कॅमरा लेकर अपनी रोज़ी रोटी की कहानी ढूँढ रहा था..हाँ इन सब से डोर वो दौनो अपनी खाट पर सोते बच्चों को देख रही थी और उनकी शांत आँखों में एक वाक्य छापा था "कि हम अगली साल के लिए भी तैयार हैं"

कोसी का सच सब जानते है , फिर बोलने से क्या डरना :)

Tuesday, September 23, 2008

शंभू

बाबा अब तो नीचे आ जाओ या पूरा दिन वहीं रहने का इरादा है , शंभू के नीचे खड़े रामू काका मुझे बुला रहे थे मेरी और शंभू की बचपन की दोस्ती थी हम साथ -साथ बड़े हुए थे, कहने को वो मुझसे उम्र मैं थोड़ा बड़ा था पर इस बात का कभी कोई फ़र्क नही पड़ा करीब दस साल पहले जब हम इस कॉलोनी में रहने आए थे तो यहाँ मेरी उम्र का कोई नही था, ज़्यादातर बच्चे या तो बोर्डिंग में पढ़ रहे थे या फिर बहुत बड़े घरों के थे जो मुझ जैसे मध्यम वर्गीय लड़के से दोस्ती करना अपनी शान के खिलाफ समझते थे में अकेला अपने घर के आँगन मे खड़ा रहता, शुरू में तो कभी उस पर मेरा ध्यान ही नही गया , पर एक दिन जब एक बकरी हमारे बगीचे में घुस आई और उसने शंभू को खाने की कोशिश की , तब मैने उसकी जान बचाई और उस दिन से वो मेरी ज़िम्मेदारी बन गया

अब में अकेला नही था , मुझे शंभू के रूप में एक दोस्त मिल गया हर रोज घंटो में उसके पास बैठा रहता था , बकरी से बचने के लिए मैने उसके चारों तरफ पत्थरों की एक बाढ़ लगा दी , अब में अपने दोस्त की सुरक्षा के लिए निश्चित था मास्टर जी क्लास में पड़ा रहे होते और में घंटा बजने के इंतजार में रहता , कि कब वहाँ से छुट्टी मिले और में शंभू से जाकर मिलूं उसका नाम शंभू कैसे पड़ा इसकी भी एक मजेदार कहानी है , में हमेशा माँ से जब पूछता था कि मेरा नाम किसने रखा तो वो कहती पंडित जी ने , उस समय मेरा ये मानना था कि जो भी भगवा कपड़ा पहनता है वो पंडित होता है एक दिन एक भिखारी भगवा कपड़ा डाले हुमारे दरवाजे पर आया तो मेरी आँखें चमक उठी और जब मेने उसे अपनी मंशा बताई तो वो हमारे एक पुराने बर्तन के बदले , नामकरण को तैयार हो गया ये बात दूसरी है कि उस बर्तन को बिना पूछे देने के लिए ,मेरी पिताजी से बहुत डाँट पड़ी पर मेरे दोस्त को एक नाम मिल गया शंभू

समय अपनी चाल चलता गया, कभी - कभी में अपना दूध का गिलास उसकी जड़ो में अर्पण कर आता था , इससे दो मतलब हल हो जाते थे , एक वो मुझसे बड़ा था और उसे ताक़त कि ज़्यादा ज़रूरत थी और दूसरा मैं दूध पीने से बच जाता था और दूध बर्बाद करने कि ग्लानि भी महसूस नही होती थी अब वो मुझसे भी बड़ा हो गया , मैं घंटों उसकी गोद में बैठकर पूरे दिन क़ी रामायण उसे सुनता था , आज मास्टर जी ने ये पढ़ाया, रामू काका ने ये खाना बनाया ,बाबूजी ड्यूटी को देर से गये और वो बड़ी शान्ती से मेरी सारी बातें सुनता रहता और अपनी डालियों को ज़ोर-ज़ोर से हिलाकर जैसे हामी भरता

माँ, बाबूजी ने कभी मुझे शंभू के पास जाने से नही रोका उसने भी अपनी पूरी दोस्ती निभायी , मेरे बचपन में बाँटे गये दूध का बदला उसने बहुत सारे अमरूदों के रूप मे दिया , पर एक दिन हमारे बिछड़ने का वक्त आ गया , बाबूजी का ट्रान्स्फर दूर के एक शहर मैं हो गया और हमें वो घर छोड़ना पड़ा हालाँकि मैने थोड़ा प्रतिरोध किया, पर बारह साल क़ी उम्र में ,मेरे अकेले वहाँ रहने क़ी ज़िद को किसी ने अहमियत नही दी उस दिन सुबह हल्की - हल्की बारिश हो रही और हम एक कार में चल दिए ,मेरे गाल नम थे पता नही बारिश क़ी वजह से या कुछ और छूट रहा था

धीरे - धीरे इस बात को काई साल बीत गये और मैं भी अपने जीवन में व्यस्त हो गया पढ़ाई , व्यापार , शादी , बच्चे , समय जैसे हवा के एक झोंके के समान निकल गया मेरा रीएल स्टेट का व्यापार जम गया ,और हमने काई जगाहों पर ज़मीन खरीद-खरीद कर घर बनाने शुरू किए हर कोई हमारे साथ जुड़ना चाहता था , काई लोग हमारे पास जगह के नक्शे लेकर आते थे हम लोगों का सीधा नियम था क़ी बेचने वाला जगह साफ करके दे और अपनी कीमत ले ले , हम सिर्फ़ साफ-सुथरी ज़मीन पर घर बनाते थे ताकि फालतू परेशानियों से बच सकें उस दिन भी कोई मेरे पास आम दिनों क़ी तरह से एक नक्शा लेकर आया , मेरी आँखें चमक उठीं क्यों कि वो मेरे बचपन के शहर से आया था उसने मुझे बताया कि जगह मज्ज़िद के ठीक सामने है ,वहाँ बस दो चीज़ें थी जो हमने हटवा दी , एक पुराना जर्जर मकान और एक अमरूद का पेड़ |

Wednesday, September 17, 2008

चर्चा का विषय

मुंबई की खार ड्राइव पर एक बड़ी कार आकर रुकी और पीछे की गेट से एक गंभीर सा दिखने वाला नौजवान निकल कर बाहर आया उसके पहनावे से वो किसी बड़ी कंपनी का अधिकारी दिखाई देता था चमचमाता सूट , पोलिश जूते और आखों पर महँगी ब्रांड का काला चश्मा , वो अनायास ही सब लोगों के आकर्षण का केंद्र बन गया | वैसे इस इलाक़े में कई बड़ी कंपनियों के दफ़्तर थे पर कम ही लोग इस तरफ आना पसंद करते थे , ऐसे में उसका आना ,स्वाभाविक कौतुहल का विषय था |

हमारे देश में सबसे ज़्यादा सुलभ नज़ारा बिना ज़रूरत के जमा भीड़ का होता है और कुछ देर बाद यही नज़ारा यहाँ भी सुलभ था | लोगों मे चर्चा शुरू हो गयी ,लगता है की पत्नी से लड़ के आया है ,एक बड़े बुजुर्ग ने कहा , नहीं- नहीं अभी शादी कहाँ हुई होगी किसी ने बीच मे टोका |दूसरी ओर कुछ लड़कियाँ बात कर रही थी ,अभी शादी नही हुई होगी एक ने दूसरी की कोहनी पर हाथ मार के कहा , पता नही इन लड़कों को तो मंगलसूत्र भी नही पहनना पड़ता , और एक हँसी की लहर दौड़ गयी | दूर एक कोने में कुछ उत्साही नौजवान उसकी कार की तारीफ कर रहे थे , कितना मज़ा आता होगा न इसमे,कितना खुश रहता होगा ये आदमी ! हाँ यार सबकी एसी क़िस्स्मत कहाँ ?

तभी किसी विद्वान व्यक्ति ने अपना तर्क रखा , कहीं ये यहाँ कोई बिल्डिंग तो नही बनाना चाहता , जिस तरह ये सामने मैदान को देख रहा है , लगता है मंशा सही नही है अब भीड़ की आखों मे थोड़ा रोष दिखाई दे रहा था , जहाँ अभी तक उस नौजवान को सम्मान की नज़र से देखा जा रहा था वहीं अब वो एक खलनायक बन चुका था पर भीड़ में किसी की भी हिम्मत ना हुई की उससे बात कर सके |

इन सब चर्चाओं से दूर वो नौजवान एकटक मैदान की तरफ देख रहा था , उसकी आखों मे एक अजीब सी बेकरारी दिख रही थी करीब आधे घंटे बाद एक कार और वहाँ आकर रुकी और ये नौजवान तेज कदमों से उसकी तरफ बड़ा , अब तक भीड़ का शक भी यकीन मे बदल चुका था | यार कितनी देर कर दी तुमने , सामान लाए हो या नही , इस नौजवान अपने जैसे ही एक दूसरे युवक से नाराज़ होते हुए पूछा |

कुछ देर बाद कोट , जूते सब गाड़ी मे पड़े हुए थे और दोनों अपनी पतलूनों को घुटने तक मोड़ कर अपने बचपन के मैदान मे पतंग उड़ा रहे थे |

Monday, September 15, 2008

उधार

उस दिन में और मनीष फिर देर से स्कूल पहुँचे थे और हमेशा की तरह ताराचंद गुरुजी ने हमें कक्षा में घुसने नही दिया पर हम भी अब इस बेज़्जती के आदि हो चुके थे आख़िर होते भी क्यों नही ताराचंद गुरुजी का ये गुस्सा हमारे लिए वरदान की तरह था,अगर वो हमें कक्षा से नही निकालते तो हमें कैसे पता चलता की सर्दी की ठंडी सुबहों मे भौतिकी के कठिन पाठ पढ़ने से ज़्यादा मज़ा ,सत्तू काका की कचौरियों में आता है

हमारे स्कूल के बगल वाली सड़क के अंत मे सत्तू काका की छोटी से दुकान थी जहाँ वो गमछा बाँधे एक छोटे से चूल्‍हे पर कचौरियाँ बनाते रहते थे,दुकान तक पहुँचने के लए सड़क से दस मिनट या दीवार फाँद कर दो मिनट लगते थे और अब तो जैसे वह दीवार भी रोज सुबह हमारा स्वागत करने को तैयार रहती थी , काका ज़रा दो कचौरी और देना,चार कचौरी खाने के बाद मनीष ने अपनी माँग रखी,सत्तू काका ने भी हंसते हुए उसे दो कचौरी और दे दी | हम हमेशा यही किया करते थे , दो-दो कचौरी से शुरू हुआ सफ़र आठ-आठ कचौरी पर जाकर रुकता था और काका के हाथ तन्मयता से हमारे लिए कचौरियाँ बेलते जाते थे

उन दिनो हमारी जेब मै ज़्यादा पैसे नही रहा करते थे ,पर सत्तू काका ने हमे कभी इस बात का एहसास नही होने दिया, वो हमेशा कहते बच्चों पहले पेट भर के खा लो ,जब पैसे हों तब दे जाना , में एक सभरांत परिवार का लड़का था पिताजी ने हमेशा सिखाया था कि उधारी ग़लत आदत होती है पर काका के स्नेह और उनकी कचौरियों के स्वाद के आगे मे पिताजी क़ी सीख भूल जाता था और इस तरह हमारा उधार ख़ाता बढ़ता गया काका को भी हमारी नीयत पर पूरा भरोसा था , जब भी कभी मे पैसे नहीं है बोलकर कचौरी के लिए मना करना चाहता, वो ज़बरदस्ती दोना मेरे हाथ में देकर कहते की लालाजी जब बड़े हो जाओ तो अपने बाबूजी से कहकर हमारे लिए एक बड़ा होटल बनवा देना,उधार उतर जायगा |

पर हमारे वो स्वप्निल दिन ज़्यादा दिनों तक नही चल पाए,रोज-रोज कक्षा से गायब रहने क़ी खबर ताराचंद गुरुजी ने प्रधानाध्यापक तक पहुँचा दी और अगले दिन हम सुबह काका क़ी दुकान क़ी कचोरियों क़ी भाप से गरम होने क़ी जगह प्रधानाध्यापक जी के डंडे क़ी मार से गर्म हो रहे थे | उस दिन के बाद हम पर जमाने भर सख्ती लागू हो गयीं और काका क़ी दुकान पर जाना छूट गया , पर उनका उधार चुकाने क़ी मंशा सदैव दिल मे रही |

करीब चार महीने बाद परीक्षा का परिणाम आ गया,सब लोगों क़ी उम्मीदों के विपरीत,में और मनीष प्रथम श्रेणी से पास हो गये थे पिताजी ने मेरे पास होने क़ी खुशी मे मुझे सौ रुपये का एक कड़क नोट इनाम मे दिया,जब मे रिज़ल्ट कार्ड लेने स्कूल पहुँचा तो मनीष मेरा इंतजार कर रहा था हम दोनो ने एक दूसरे क़ी तरफ देखा और नज़रें मिलते ही हमारी आँखें चमक उठीं,आज उत्सव का दिन था और उत्सव क़ी खुशियाँ बिना काका क़ी कचौरियों के कैसे पूरी हो सकती थी हम दोनों तेज-तेज कदमों से काका क़ी दुकान पर पहुँचे,आज दस मिनट वाला रास्ता भी दो मिनट मे पूरा हो गया पर अब ना वहाँ सत्तू काका थे ना ही उनकी दुकान साथ वाले दुकानदार से पूछा तो उसने बताया क़ी काका ने किसी आदमी से कुछ पैसा उधार लिया था और जब वो उसे चुका नही पाए तो उस आदमी ने कुछ गुण्डों के साथ उनकी दुकान मैं आग लगा दी,काका इस सदमे को बर्दाश्त नहीं कर सके और ह्रदय आघात से चल बसे

वो एक छोटा सा कमरा था,पानी क़ी सीलन से दीवारें गिरासू हो चुकी थी,घर मे सिर्फ़ एक महिला और दो बच्चे थे काका ने बताया था क़ी उनके बेटे क़ी मौत के बाद वो ही अपनी बहू और बच्चों का पेट पाल रहे थे मैने मनीष क़ी तरफ देखा,उसने अपनी जेब में हाथ डाला और अब हमारे हाथ मै तीन सौ के नोट थे हमनें वो पैसा चुप चाप उन मासूम हाथों में रख दिया और धीमे -धीमे कदमों से अपना उधार चुकाकर लौट पड़े |

Thursday, September 11, 2008

वेश्या की अनाथ बेटी

रेल की पटरी के इर्द गिर्द भीड़ जमा थी , कोई कलयुग को कोस रहा था तो कोई इसे मानवीयता का अंत बता रहा था आखिर कैसे कोई माँ इतनी निर्दयी कैसे हो सकती है कि अपनी नवजात बच्ची को इस प्रकार मरने के लिए छोड़ दे , वो तो भाग्य से सफाई कर्मचारी की नजर हिलती हुई पोटली पर पड़ गई और इस नन्ही सी जान की जान बच गई, वो एक छोटी गुडिया के जैसी लग रही थी,उसके नन्हे - नन्हे हाथ और गुलाबी मुख ,बरबस ही आकर्षण का केन्द्र बन गए हर कोई उसे गोद में लेना चाहता था जैसे सारी दुनिया अपना वात्सल्य उस पर न्योछावर करना चाहती हो
पराशर जी हमारे छेत्र की एक कद्दावर हिंदू शक्सियत थे ,उनकी विद्वता और समझ का चर्चा दूर -दूर तक था बस उनके जीवन में एक संतान की ही कमी थी , जब पराशर जी तक बच्ची की चर्चा पहुँची तो वे भी उसे देखने आए और उस सुंदर गुडिया में उन्हें अपनी वर्षो की आशा पूर्ण होती दिखाई देने लगी,पर उनके पहुँचने से पहले ही एक मुस्लिम दम्पति भी उस बच्ची को गोद लेने का मन बना चुके थे अब ये प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गया , कुछ देर पहले जहाँ बच्ची अनाथ थी अब उसकी दावेदारी को लेकर कई नाथ लड़ रहे थे बहस चलती रही , भीड़ दो पक्षों में बट चुकी थी ,कोई पराशर जी को सही पालक बता रहा था तो कोई मुस्लिम दम्पति के पक्ष में बयान दे रहा था, हर कोई उस बच्ची के भाग्य निर्धारण में सहयोग करना चाहता था
इसी बीच किसी ने पुलिस को सूचना दे दी और कुछ देर में पुलिस और मीडिया का जमवाडा भी हो गया , आधे घंटे बाद देश का हर घर उस बच्ची को देख रहा था, अलग -अलग चैनलों ने उसके कई नाम रख दिए ,अनामिका , परी और जाने क्या -क्या, रेल की पटरी के पास अब दो तम्बू लग चुके थे ,एक तरफ़ पराशर जी के समर्थन में नेता जी भाषण दे रहे थे वहीं दूसरी ओर मुस्लिम दंपत्ति के समर्थन मे एक मौलाना साहब सभा कर रहे थे इस सब से दूर वो नन्ही जान एक पालने मे लेटी हुई अपने भविष्य के निर्धारण का इंतजार कर रही थी
दो दिन बाद का नज़ारा कुछ चोंकाने वाला था,तंबू उखड़ चुके थे सारे मीडीया की गाड़ियाँ जा चुकी पाराशर जी और मुस्लिम परिवार भी अपने घर लौट चुका था,जब कारण जानना चाहा तो पता चला की बच्ची के गले मे पड़ी एक माला से किसी ने उसकी पहचान कर ली थी,वो एक वैश्या की बेटी थी जिसने उसे फेंकेने के बाद वैश्या ने आत्महत्या कर ली , इस सच को जानने के बाद सब एक - एक कर वहाँ से निकल गये और जब उस अनाथ गुड़िया को कोई नाथ न मिल पोलीस ने उसे एक सरकारी अनाथालय मे पहुँचा दिया

Tuesday, September 9, 2008

माली का बेटा

गर्मी की भयावता बढती जा रही थी ऐसा लग रहा था जैसे सूरज अपने ताप से पूरी धरती को निगल जाना चाहता हो एसे में चिंटू और उसके बाबा हमारे बाग़ की क्यारियों की गुडाई कर पानी देने में लगे हुए थे पसीने से तरबतर उनके शरीर को देखकर लगता था जैसे उनका शरीर भी फोव्वारे के साथ उनके काम में हाथ बटाना चाहता हो में अपने एसी कमरे की खिड़की से उन्हें काम करते देख रहा था
माँ ने बताया था कि निर्मल काका की बेटी कि शादी होने वाली है इसलिए वे आजकल ज्यादा से ज्यादा काम करके पैसा बनाना चाहते हैं और इसलिए चिंटू भी उनके साथ आता है हमे इस कालोनी मे आए ज्यादा समय नही हुआ था , निर्मल काका कई साल से सामने वाले शर्मा जी कि कोठी में काम कर रहे थे उन्होने ही काका को हमारे यहाँ भेजा था काका अक्सर बात करते हुए कहते थे कि वो शर्माजी के यहाँ अपनी तनखाह जमा करवाते आ रहे थे ताकि इकठ्ठा पैसा शादी में काम आ सके गर्मी अपने चरम पर पहुँच गई और वो जुर्रिदार हाथ तन्मयता से अपना काम करते रहे
आज दस दिन हो गए है निर्मल काका का कुछ पता नही ,मेनें उन्हें सामने वाले घर में भी आते हुए नही देखा ,जिज्ञासा वश जब माँ से पूछा तो पता चला कि उन्हे लू लग गई थी और चार- पाँच दिन पहले उन्होंने दम तोड़ दिया और चिंटू अब जेल मैं हैं ,दरसल उस माली के बेटी ने अपनी हद पार कर दी ,जब शर्मा अंकल ने काका के किसी भी पैसे का उनके पास होने से इनकार कर दिया ,उसने पत्थर उठा लिया ...और ............

Monday, September 8, 2008

सत्यव्रत

हर इंसान जीवन में कुछ न कुछ पाना चाहता है या ये कहिये की कुछ ना कुछ अलग करना चाहता है ऐसी ही किसी इच्छा के वशीभूत होकर सत्यव्रत ने प्रण किया कि वो एक दिन उच्च शिक्षा के लिए सागर के पार जाएगा उसका सपना था कि वो अपनी नियति को बदल देगा ,वो अपनी बीमार माँ के लिए भरपेट खाना और बाबा के लिए एक साइकिल लेना चाहता था सत्यव्रत के बाबा ने जीवन भर पैदल चलकर उसकी पढ़ाई के लिए धन जुटाया था,समय बीतता गया और सत्यव्रत का निश्चय और भी ढ्रद होता गया , उसने दिन रात मैं फर्क किए बिना पढ़ाई की और एक दिन उसके सपने पूरे हो गए, उसका दाखिला अमेरिका के एक अच्छे कालिज में हो गया ! उसके सपनो के लिए बाबा ने घर को भी गिरवी रख दिया
आज इस बात को वर्षो बीत चुके हैं सत्यव्रत अब एक बड़ी बैंक में अधिकारी है ,लोग कहते है कि उसके बच्चे बहुत सुंदर हैं शायद उसकी बीबी से भी ज्यादा , हाँ उसकी माँ के बारे मैं सुना कि तीन साल पहले उन्होने सिविल अस्पताल में दम तोड़ दिया ,सत्यव्रत उस समय यूरोप में कहीं था और हाँ उसके बाबा आज भी नौकरी कर रहे हैं कहते हैं कि वो अपने घर को महाजन से वापिस लेना चाहते हैं ताकि जब उनके नाती आयें तो उन्हें शर्मिंदा ना होना पड़े