Tuesday, September 30, 2008

गरम खून

आज फिर गुजरात में तीन धमाके हुए और तेईस लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा | हर एक चॅनेल घुमा फिरा कर बार-बार यही खबर दिखा रहा था | आशीष अभी-अभी दफ़्तर से थका हारा घर लौटा था और सोफे पर बैठकर अपने जूतों के फीते खोल रहा था | पता नही इस देश का क्या होगा , चाय लाते हुए शिप्रा बोली | देखो ना अब गुजरात मैं धमाके हो गये ,पता नही आगे क्या होगा , शुक्र है की अभी तक हमारा शहर आतंकवाद की आग से बचा हुआ है | आशीष अब तक पूरी खबर छान चुका था , टीवी पर किसी बच्चे के बारे में बता रहे थे जिसका सारा परिवार धमाके की भेंट चढ़ गया था |

सब कुछ देख कर आशीष का खून खौल रहा था , शिप्रा इन लोगों को तो खुले आम फाँसी दे देनी चाहिए | देखो पता नही छोटे-छोटे बच्चों पर भी दया नही आती इन्हे | इतनी देर में आशीष के दोस्त सुनील का फोन आया ,वो भी इन धमाकों से बहुत नाराज़ था | आशीष और सुनील अक्सर आतंकवाद और अन्य सामाजिक विषयों पर चर्चा किया करते थे | अब तो हमें ही कुछ ना कुछ करना पड़ेगा याद है कॉलेज के दिनों में हम ग़लत बात के विरोध में सबसे लड़ जाते थे पता नही हमें अब क्या हो गया है | शिप्रा भी उन दोनो की बात सुन रही थी और अपने पति के कॉलेज के दिनो की कल्पना कर रही थी |

दोनो की काफ़ी देर तक फोन पर ही चर्चा चलती रही , बीच - बीच में शिप्रा टीवी के चॅनेल बदलती तो आशीष का गुस्सा और भी बढ़ जाता | अब तक कुछ नेता बयान देना भी शुरू कर चुके थे और अलग -अलग पार्टियाँ , अलग-अलग पार्टियों को धमाके का कारण बता रही थी | सुनील सबसे पहले तो हमे इन नेताओं का ही कुछ करना चाहिए , इन्होने ही देश को बर्बाद कर दिया है , अब क्या है एक कमेटी बना देंगे और हो गया काम , सही कह रहे हो आशीष | खैर चलो कल मिलते है तब बात करते हैं , अब कुछ तो करना ही पड़ेगा |

अगले दिन समाचार मिला कि पोलीस ने कुछ आतंवादियों को मार गिराया और उसमे पोलीस के भी कुछ जवान शहीद हो गये | शाम को आशीष क़ी कॉलोनी वालों ने शहीदों को श्रधांजलि देने कि लिए एक मौन सभा रखी थी पर आशीष नही दिखाई दे रहा था | पता किया तो मालूम चला कि वो और सुनील अपने ऑफीस के लोगों के साथ कोई पिक्चर देखने गये हुए थे |

Thursday, September 25, 2008

मास्टर जी

तड़ - तड़ , गीली नीम की हरी डंडी मेरे हाथ पर पड़ी और में दर्द और कराह उठा आज एक बार फ़िर में अपना पाठ याद करके नही आया था और मास्टरजी मेरी सेवा कर रहे थे पता नही नियति ने किस पाप का बदला लेने के लिए उन्हें हमारे विधालय में भेज दिया था , वे हमेशा कहते थे कि अगर में ऐसे ही पढ़ाई से जी चुराता रहा तो एक दिन किसी दुकान पर पंचर जोड़ना पड़ेगा और में हमेशा घर के रास्ते में पड़ने वाली पंचर की दुकान को देखकर अपना भविष्य चित्रित किया करता था हमारी शरारती टोली हमेशा उन्हें परेशान करने के नये -नए तरीके ढूँढती रहती थी , कभी हम उनकी ऐनक छुपा देते तो कभी उनकी कुर्सी पर गोंद फैला देते, पर वे भी किसी हठी बालक की तरह जमे रहे और उनके अनुशाशन के डंडे से हमारी चटक भावनाओं का दमन होता रहा भूगोल और विज्ञानं के पाठों के बीच घूमते -घूमते मेरा बचपन घुमावदार पहाडी पर चलती किसी ट्रेन की तरह कब बीत गया पता ही नही चला और एक दिन मैंने अपने विधालय से विदा ली उस दिन मैंने पहली बार मास्टरजी को हम पर गुस्सा होते नही देखा वे आज शांत थे जैसे कोई नाविक, नाव को किनारे पर लगा जाते हुए मुसाफिरों को देख रहा हो

समय अपनी चाल से चलता रहा और धीरे - धीरे कई साल बीत गए और हम सब लोग अपनी - अपनी राह में व्यस्त होते गए कंप्यूटर और रोकेट की दुनिया में अब गावों के स्कूल की यादें कहीं धूमिल हो गई मैंने दुनिया में बहुत नाम कमाया एक प्रसिद्ध लेखक बनकर में अमेरिका में बस गया , अमेरिका सपनो का देश था और में अपने सपनो में खो गया हमारे कई दोस्त भारत में ही रह रहे थे और वहां के समाचार मिलते रहते थे पर कभी भी मास्टर जी की कोई सूचना नही मिली या यों कहिये ,कभी ध्यान ही नही आया

नवंबर मे राकेश क़ी चिट्ठी आई , वो भी हमारे बचपन का साथी था उसके बेटे क़ी शादी तय हो गयी थी और सयोंग से बारात भी हमारे गावों मे जाने वाली थी इतने सालों बाद आज मुझे एक अजीब से आनंद क़ी अनुभूति हो रही थी राकेश के बेटे क़ी शादी के रूप में भाग्य ने मुझे एक सुअवसर दिया था अपने बचपन से मिलने का हालाँकि उसी समय मैं ,मुझे कुछ विद्वानों से मिलने यूरोप जाना था पर मास्टर जी से मिलने की मिलने क़ी ललक सब पर भारी पड़ी मैंने अपनी पत्नी को समझाया और दो दिन बाद हम लोग भारत क़ी उड़ान पर थे

तय समय पर हम गावों मैं पहुँच गये,बारात का जोरदार स्वागत हुआ और राकेश भी खुश था क़ी मेरे जैसा जाना माना व्यक्ति उस के बेटे क़ी शादी मे आया , पर मेरी आखें भीड़ मैं मास्टर जी को खोज रही थी, पता नही तीस साल बाद वे कैसे दिखाई देते होंगे , पता नही अब भी गुस्सा करते होंगे या नही , अनगिनत सवाल मेरे दिमाग़ में गूँज रहे थे तभी एक छोटे बच्चे ने आकर मुझसे पूछा क्या आप ही विनय काका हो , जब मैने हाँ में सिर हिलाया तो उसने पर्दे के पीछे खड़े एक बुजुर्ग को आने का इशारा किया वो मास्टर जी ही थे शायद उन्हे शादी मैं नही बुलाया गया था

तुम अब बहुत बड़े हो गये हो , तुम्हारे बारे में बहुत सुनता रहता था तुम गावों आए हो पता चला तो खुद को रोक नही पाया और मिलने चला आया मेरा पोता तुम्हे बहुत मानता है ,वे कहते हुए मेरी तरफ आ रहे थे पर मैं वहाँ पर नही था मैं तो उनके चरणों को अपने आंसूओं से धो रहा था

Wednesday, September 24, 2008

कोसी का सच

आज चार दिन हो गये ,बारिश रुकने का नाम ही नही ले रही थी | कुन्नू ने बाहर से आकर अपना छाता खूँटी पर तंग दिया , वो पूरा भींगा हुआ था ,उसकी फटी हुई नेकर और शर्ट पानी से तरबतर थी | बाबा का कुछ पता नही चला माई,वो कमरे में अंदर घुसते हुए बोला | कुन्नू के बाबा गावों के सरपंच थे और गावों के कुछ लोगों के साथ दो दिन पहले कोसी के तटबंध जाँचने गये थे पर तब से उनका कोई सुराग नही था | दूसरी ओर कुन्नू की माँ , कुन्नू और उसके तीन छोटे भाई
बहनो के साथ बारिश की भयवता के बीच उनका इंतजार कर रही थी |

वैसे साल के इस समय यहाँ बारिश होना नयी बात नही थी पर इस बार बारिश ने सारे रेकॉर्ड तोड़ दिए , लगातार बारिश से नदी का जल स्तर बढ़ता जा रहा था और तटबंधों की ख़तरा उत्पन्न हो गया | किसी ने बरुआ के खेत के पास तटबंध में दरार आने की सूचना दी और कुन्नू के बाबा ,गावों के कुछ कुशल कारीगरों को लेकर उस तरफ निकल गये |
शाम तक सब लोग वापिस आ गये , पर कुन्नू के बाबा और चार लोगों का कुछ पता नही चल रहा था |

कुन्नू के माँ एक सीधी- साधी महिला थी , उसे बस इतना याद रहा कि एक बार पति ने कहा था कि अगर कभी बिछड़ गया तो घर पर ही आऊंगा और वो इसी भरोसे अपने पति का इंतजार कर रही थी | बारिश का पानी अब घर क़ी देहरी तक पहुँच चुका था उसके छोटे-छोटे बच्चे उससे चिपके, खाट पर सोए पड़े हुए थे | धमाक , एक ज़ोर क़ी आवाज़ हुई और कुन्नू भागता हुआ अंदर आया , माँ नीम का पेड़ गिर गया , सारे बिजली के तार भी टूट गये | उसने एक करवट अपने बच्चों क़ी तरफ देखा और कुन्नू से बोली , जा जाकर मुन्नी को बोल क़ी माँ बुला रही है , जल्दी आए |

मुन्नी उनके पड़ोस में रहने वाली एक विधवा महिला थी जिसका पति पिछले साल की बाढ़ में स्वाह हो गया था , कुन्नू भागा भागा गया और मुन्नी को बुला लाया , अब दोनो औरतें जानती थी की उन्हे क्या करना था , कोसी के तट बँधी सभी गावों वालों को पता था क्या करना है , रात भयावाह थी पर अब वो दो थी.

कुन्नू की माँ अब एक ही रात में सीधी-साधी गवाँर महिला से समझदार हो चुकी थी , उसे पता था कि वहाँ रुकना या कुन्नू के बाबा का इंतजार करना अब सम्भब नही था , उसे फ़ैसला लेना था , कुछ देर बाद दौनो महिलाएँ एक खाट के दो पाओं को सर पर रखे और अपने बच्चों को उस पर बिठाए आधी कमर तक के पानी में निकल पड़ी , बाहर बोहोट तेज बिजली चमक रही थी पर उनके चेहरे पर चमक थी ऐसा प्रतीत हुआ मानो आसमान भी अभिमान को चूम रहा हो |

उन दो गवाँर महिलाओं को जो ठीक लगा उन्होने किया , अगले दिन का नज़ारा वही पुराना तमाशा था , नेता आ रहे थे - नेता जा रहे थे , कोई हैली-कॉपटेर से जायज़ा ले रहा था और कोई कॅमरा लेकर अपनी रोज़ी रोटी की कहानी ढूँढ रहा था..हाँ इन सब से डोर वो दौनो अपनी खाट पर सोते बच्चों को देख रही थी और उनकी शांत आँखों में एक वाक्य छापा था "कि हम अगली साल के लिए भी तैयार हैं"

कोसी का सच सब जानते है , फिर बोलने से क्या डरना :)

Tuesday, September 23, 2008

शंभू

बाबा अब तो नीचे आ जाओ या पूरा दिन वहीं रहने का इरादा है , शंभू के नीचे खड़े रामू काका मुझे बुला रहे थे मेरी और शंभू की बचपन की दोस्ती थी हम साथ -साथ बड़े हुए थे, कहने को वो मुझसे उम्र मैं थोड़ा बड़ा था पर इस बात का कभी कोई फ़र्क नही पड़ा करीब दस साल पहले जब हम इस कॉलोनी में रहने आए थे तो यहाँ मेरी उम्र का कोई नही था, ज़्यादातर बच्चे या तो बोर्डिंग में पढ़ रहे थे या फिर बहुत बड़े घरों के थे जो मुझ जैसे मध्यम वर्गीय लड़के से दोस्ती करना अपनी शान के खिलाफ समझते थे में अकेला अपने घर के आँगन मे खड़ा रहता, शुरू में तो कभी उस पर मेरा ध्यान ही नही गया , पर एक दिन जब एक बकरी हमारे बगीचे में घुस आई और उसने शंभू को खाने की कोशिश की , तब मैने उसकी जान बचाई और उस दिन से वो मेरी ज़िम्मेदारी बन गया

अब में अकेला नही था , मुझे शंभू के रूप में एक दोस्त मिल गया हर रोज घंटो में उसके पास बैठा रहता था , बकरी से बचने के लिए मैने उसके चारों तरफ पत्थरों की एक बाढ़ लगा दी , अब में अपने दोस्त की सुरक्षा के लिए निश्चित था मास्टर जी क्लास में पड़ा रहे होते और में घंटा बजने के इंतजार में रहता , कि कब वहाँ से छुट्टी मिले और में शंभू से जाकर मिलूं उसका नाम शंभू कैसे पड़ा इसकी भी एक मजेदार कहानी है , में हमेशा माँ से जब पूछता था कि मेरा नाम किसने रखा तो वो कहती पंडित जी ने , उस समय मेरा ये मानना था कि जो भी भगवा कपड़ा पहनता है वो पंडित होता है एक दिन एक भिखारी भगवा कपड़ा डाले हुमारे दरवाजे पर आया तो मेरी आँखें चमक उठी और जब मेने उसे अपनी मंशा बताई तो वो हमारे एक पुराने बर्तन के बदले , नामकरण को तैयार हो गया ये बात दूसरी है कि उस बर्तन को बिना पूछे देने के लिए ,मेरी पिताजी से बहुत डाँट पड़ी पर मेरे दोस्त को एक नाम मिल गया शंभू

समय अपनी चाल चलता गया, कभी - कभी में अपना दूध का गिलास उसकी जड़ो में अर्पण कर आता था , इससे दो मतलब हल हो जाते थे , एक वो मुझसे बड़ा था और उसे ताक़त कि ज़्यादा ज़रूरत थी और दूसरा मैं दूध पीने से बच जाता था और दूध बर्बाद करने कि ग्लानि भी महसूस नही होती थी अब वो मुझसे भी बड़ा हो गया , मैं घंटों उसकी गोद में बैठकर पूरे दिन क़ी रामायण उसे सुनता था , आज मास्टर जी ने ये पढ़ाया, रामू काका ने ये खाना बनाया ,बाबूजी ड्यूटी को देर से गये और वो बड़ी शान्ती से मेरी सारी बातें सुनता रहता और अपनी डालियों को ज़ोर-ज़ोर से हिलाकर जैसे हामी भरता

माँ, बाबूजी ने कभी मुझे शंभू के पास जाने से नही रोका उसने भी अपनी पूरी दोस्ती निभायी , मेरे बचपन में बाँटे गये दूध का बदला उसने बहुत सारे अमरूदों के रूप मे दिया , पर एक दिन हमारे बिछड़ने का वक्त आ गया , बाबूजी का ट्रान्स्फर दूर के एक शहर मैं हो गया और हमें वो घर छोड़ना पड़ा हालाँकि मैने थोड़ा प्रतिरोध किया, पर बारह साल क़ी उम्र में ,मेरे अकेले वहाँ रहने क़ी ज़िद को किसी ने अहमियत नही दी उस दिन सुबह हल्की - हल्की बारिश हो रही और हम एक कार में चल दिए ,मेरे गाल नम थे पता नही बारिश क़ी वजह से या कुछ और छूट रहा था

धीरे - धीरे इस बात को काई साल बीत गये और मैं भी अपने जीवन में व्यस्त हो गया पढ़ाई , व्यापार , शादी , बच्चे , समय जैसे हवा के एक झोंके के समान निकल गया मेरा रीएल स्टेट का व्यापार जम गया ,और हमने काई जगाहों पर ज़मीन खरीद-खरीद कर घर बनाने शुरू किए हर कोई हमारे साथ जुड़ना चाहता था , काई लोग हमारे पास जगह के नक्शे लेकर आते थे हम लोगों का सीधा नियम था क़ी बेचने वाला जगह साफ करके दे और अपनी कीमत ले ले , हम सिर्फ़ साफ-सुथरी ज़मीन पर घर बनाते थे ताकि फालतू परेशानियों से बच सकें उस दिन भी कोई मेरे पास आम दिनों क़ी तरह से एक नक्शा लेकर आया , मेरी आँखें चमक उठीं क्यों कि वो मेरे बचपन के शहर से आया था उसने मुझे बताया कि जगह मज्ज़िद के ठीक सामने है ,वहाँ बस दो चीज़ें थी जो हमने हटवा दी , एक पुराना जर्जर मकान और एक अमरूद का पेड़ |

Wednesday, September 17, 2008

चर्चा का विषय

मुंबई की खार ड्राइव पर एक बड़ी कार आकर रुकी और पीछे की गेट से एक गंभीर सा दिखने वाला नौजवान निकल कर बाहर आया उसके पहनावे से वो किसी बड़ी कंपनी का अधिकारी दिखाई देता था चमचमाता सूट , पोलिश जूते और आखों पर महँगी ब्रांड का काला चश्मा , वो अनायास ही सब लोगों के आकर्षण का केंद्र बन गया | वैसे इस इलाक़े में कई बड़ी कंपनियों के दफ़्तर थे पर कम ही लोग इस तरफ आना पसंद करते थे , ऐसे में उसका आना ,स्वाभाविक कौतुहल का विषय था |

हमारे देश में सबसे ज़्यादा सुलभ नज़ारा बिना ज़रूरत के जमा भीड़ का होता है और कुछ देर बाद यही नज़ारा यहाँ भी सुलभ था | लोगों मे चर्चा शुरू हो गयी ,लगता है की पत्नी से लड़ के आया है ,एक बड़े बुजुर्ग ने कहा , नहीं- नहीं अभी शादी कहाँ हुई होगी किसी ने बीच मे टोका |दूसरी ओर कुछ लड़कियाँ बात कर रही थी ,अभी शादी नही हुई होगी एक ने दूसरी की कोहनी पर हाथ मार के कहा , पता नही इन लड़कों को तो मंगलसूत्र भी नही पहनना पड़ता , और एक हँसी की लहर दौड़ गयी | दूर एक कोने में कुछ उत्साही नौजवान उसकी कार की तारीफ कर रहे थे , कितना मज़ा आता होगा न इसमे,कितना खुश रहता होगा ये आदमी ! हाँ यार सबकी एसी क़िस्स्मत कहाँ ?

तभी किसी विद्वान व्यक्ति ने अपना तर्क रखा , कहीं ये यहाँ कोई बिल्डिंग तो नही बनाना चाहता , जिस तरह ये सामने मैदान को देख रहा है , लगता है मंशा सही नही है अब भीड़ की आखों मे थोड़ा रोष दिखाई दे रहा था , जहाँ अभी तक उस नौजवान को सम्मान की नज़र से देखा जा रहा था वहीं अब वो एक खलनायक बन चुका था पर भीड़ में किसी की भी हिम्मत ना हुई की उससे बात कर सके |

इन सब चर्चाओं से दूर वो नौजवान एकटक मैदान की तरफ देख रहा था , उसकी आखों मे एक अजीब सी बेकरारी दिख रही थी करीब आधे घंटे बाद एक कार और वहाँ आकर रुकी और ये नौजवान तेज कदमों से उसकी तरफ बड़ा , अब तक भीड़ का शक भी यकीन मे बदल चुका था | यार कितनी देर कर दी तुमने , सामान लाए हो या नही , इस नौजवान अपने जैसे ही एक दूसरे युवक से नाराज़ होते हुए पूछा |

कुछ देर बाद कोट , जूते सब गाड़ी मे पड़े हुए थे और दोनों अपनी पतलूनों को घुटने तक मोड़ कर अपने बचपन के मैदान मे पतंग उड़ा रहे थे |

Monday, September 15, 2008

उधार

उस दिन में और मनीष फिर देर से स्कूल पहुँचे थे और हमेशा की तरह ताराचंद गुरुजी ने हमें कक्षा में घुसने नही दिया पर हम भी अब इस बेज़्जती के आदि हो चुके थे आख़िर होते भी क्यों नही ताराचंद गुरुजी का ये गुस्सा हमारे लिए वरदान की तरह था,अगर वो हमें कक्षा से नही निकालते तो हमें कैसे पता चलता की सर्दी की ठंडी सुबहों मे भौतिकी के कठिन पाठ पढ़ने से ज़्यादा मज़ा ,सत्तू काका की कचौरियों में आता है

हमारे स्कूल के बगल वाली सड़क के अंत मे सत्तू काका की छोटी से दुकान थी जहाँ वो गमछा बाँधे एक छोटे से चूल्‍हे पर कचौरियाँ बनाते रहते थे,दुकान तक पहुँचने के लए सड़क से दस मिनट या दीवार फाँद कर दो मिनट लगते थे और अब तो जैसे वह दीवार भी रोज सुबह हमारा स्वागत करने को तैयार रहती थी , काका ज़रा दो कचौरी और देना,चार कचौरी खाने के बाद मनीष ने अपनी माँग रखी,सत्तू काका ने भी हंसते हुए उसे दो कचौरी और दे दी | हम हमेशा यही किया करते थे , दो-दो कचौरी से शुरू हुआ सफ़र आठ-आठ कचौरी पर जाकर रुकता था और काका के हाथ तन्मयता से हमारे लिए कचौरियाँ बेलते जाते थे

उन दिनो हमारी जेब मै ज़्यादा पैसे नही रहा करते थे ,पर सत्तू काका ने हमे कभी इस बात का एहसास नही होने दिया, वो हमेशा कहते बच्चों पहले पेट भर के खा लो ,जब पैसे हों तब दे जाना , में एक सभरांत परिवार का लड़का था पिताजी ने हमेशा सिखाया था कि उधारी ग़लत आदत होती है पर काका के स्नेह और उनकी कचौरियों के स्वाद के आगे मे पिताजी क़ी सीख भूल जाता था और इस तरह हमारा उधार ख़ाता बढ़ता गया काका को भी हमारी नीयत पर पूरा भरोसा था , जब भी कभी मे पैसे नहीं है बोलकर कचौरी के लिए मना करना चाहता, वो ज़बरदस्ती दोना मेरे हाथ में देकर कहते की लालाजी जब बड़े हो जाओ तो अपने बाबूजी से कहकर हमारे लिए एक बड़ा होटल बनवा देना,उधार उतर जायगा |

पर हमारे वो स्वप्निल दिन ज़्यादा दिनों तक नही चल पाए,रोज-रोज कक्षा से गायब रहने क़ी खबर ताराचंद गुरुजी ने प्रधानाध्यापक तक पहुँचा दी और अगले दिन हम सुबह काका क़ी दुकान क़ी कचोरियों क़ी भाप से गरम होने क़ी जगह प्रधानाध्यापक जी के डंडे क़ी मार से गर्म हो रहे थे | उस दिन के बाद हम पर जमाने भर सख्ती लागू हो गयीं और काका क़ी दुकान पर जाना छूट गया , पर उनका उधार चुकाने क़ी मंशा सदैव दिल मे रही |

करीब चार महीने बाद परीक्षा का परिणाम आ गया,सब लोगों क़ी उम्मीदों के विपरीत,में और मनीष प्रथम श्रेणी से पास हो गये थे पिताजी ने मेरे पास होने क़ी खुशी मे मुझे सौ रुपये का एक कड़क नोट इनाम मे दिया,जब मे रिज़ल्ट कार्ड लेने स्कूल पहुँचा तो मनीष मेरा इंतजार कर रहा था हम दोनो ने एक दूसरे क़ी तरफ देखा और नज़रें मिलते ही हमारी आँखें चमक उठीं,आज उत्सव का दिन था और उत्सव क़ी खुशियाँ बिना काका क़ी कचौरियों के कैसे पूरी हो सकती थी हम दोनों तेज-तेज कदमों से काका क़ी दुकान पर पहुँचे,आज दस मिनट वाला रास्ता भी दो मिनट मे पूरा हो गया पर अब ना वहाँ सत्तू काका थे ना ही उनकी दुकान साथ वाले दुकानदार से पूछा तो उसने बताया क़ी काका ने किसी आदमी से कुछ पैसा उधार लिया था और जब वो उसे चुका नही पाए तो उस आदमी ने कुछ गुण्डों के साथ उनकी दुकान मैं आग लगा दी,काका इस सदमे को बर्दाश्त नहीं कर सके और ह्रदय आघात से चल बसे

वो एक छोटा सा कमरा था,पानी क़ी सीलन से दीवारें गिरासू हो चुकी थी,घर मे सिर्फ़ एक महिला और दो बच्चे थे काका ने बताया था क़ी उनके बेटे क़ी मौत के बाद वो ही अपनी बहू और बच्चों का पेट पाल रहे थे मैने मनीष क़ी तरफ देखा,उसने अपनी जेब में हाथ डाला और अब हमारे हाथ मै तीन सौ के नोट थे हमनें वो पैसा चुप चाप उन मासूम हाथों में रख दिया और धीमे -धीमे कदमों से अपना उधार चुकाकर लौट पड़े |

Thursday, September 11, 2008

वेश्या की अनाथ बेटी

रेल की पटरी के इर्द गिर्द भीड़ जमा थी , कोई कलयुग को कोस रहा था तो कोई इसे मानवीयता का अंत बता रहा था आखिर कैसे कोई माँ इतनी निर्दयी कैसे हो सकती है कि अपनी नवजात बच्ची को इस प्रकार मरने के लिए छोड़ दे , वो तो भाग्य से सफाई कर्मचारी की नजर हिलती हुई पोटली पर पड़ गई और इस नन्ही सी जान की जान बच गई, वो एक छोटी गुडिया के जैसी लग रही थी,उसके नन्हे - नन्हे हाथ और गुलाबी मुख ,बरबस ही आकर्षण का केन्द्र बन गए हर कोई उसे गोद में लेना चाहता था जैसे सारी दुनिया अपना वात्सल्य उस पर न्योछावर करना चाहती हो
पराशर जी हमारे छेत्र की एक कद्दावर हिंदू शक्सियत थे ,उनकी विद्वता और समझ का चर्चा दूर -दूर तक था बस उनके जीवन में एक संतान की ही कमी थी , जब पराशर जी तक बच्ची की चर्चा पहुँची तो वे भी उसे देखने आए और उस सुंदर गुडिया में उन्हें अपनी वर्षो की आशा पूर्ण होती दिखाई देने लगी,पर उनके पहुँचने से पहले ही एक मुस्लिम दम्पति भी उस बच्ची को गोद लेने का मन बना चुके थे अब ये प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गया , कुछ देर पहले जहाँ बच्ची अनाथ थी अब उसकी दावेदारी को लेकर कई नाथ लड़ रहे थे बहस चलती रही , भीड़ दो पक्षों में बट चुकी थी ,कोई पराशर जी को सही पालक बता रहा था तो कोई मुस्लिम दम्पति के पक्ष में बयान दे रहा था, हर कोई उस बच्ची के भाग्य निर्धारण में सहयोग करना चाहता था
इसी बीच किसी ने पुलिस को सूचना दे दी और कुछ देर में पुलिस और मीडिया का जमवाडा भी हो गया , आधे घंटे बाद देश का हर घर उस बच्ची को देख रहा था, अलग -अलग चैनलों ने उसके कई नाम रख दिए ,अनामिका , परी और जाने क्या -क्या, रेल की पटरी के पास अब दो तम्बू लग चुके थे ,एक तरफ़ पराशर जी के समर्थन में नेता जी भाषण दे रहे थे वहीं दूसरी ओर मुस्लिम दंपत्ति के समर्थन मे एक मौलाना साहब सभा कर रहे थे इस सब से दूर वो नन्ही जान एक पालने मे लेटी हुई अपने भविष्य के निर्धारण का इंतजार कर रही थी
दो दिन बाद का नज़ारा कुछ चोंकाने वाला था,तंबू उखड़ चुके थे सारे मीडीया की गाड़ियाँ जा चुकी पाराशर जी और मुस्लिम परिवार भी अपने घर लौट चुका था,जब कारण जानना चाहा तो पता चला की बच्ची के गले मे पड़ी एक माला से किसी ने उसकी पहचान कर ली थी,वो एक वैश्या की बेटी थी जिसने उसे फेंकेने के बाद वैश्या ने आत्महत्या कर ली , इस सच को जानने के बाद सब एक - एक कर वहाँ से निकल गये और जब उस अनाथ गुड़िया को कोई नाथ न मिल पोलीस ने उसे एक सरकारी अनाथालय मे पहुँचा दिया

Tuesday, September 9, 2008

माली का बेटा

गर्मी की भयावता बढती जा रही थी ऐसा लग रहा था जैसे सूरज अपने ताप से पूरी धरती को निगल जाना चाहता हो एसे में चिंटू और उसके बाबा हमारे बाग़ की क्यारियों की गुडाई कर पानी देने में लगे हुए थे पसीने से तरबतर उनके शरीर को देखकर लगता था जैसे उनका शरीर भी फोव्वारे के साथ उनके काम में हाथ बटाना चाहता हो में अपने एसी कमरे की खिड़की से उन्हें काम करते देख रहा था
माँ ने बताया था कि निर्मल काका की बेटी कि शादी होने वाली है इसलिए वे आजकल ज्यादा से ज्यादा काम करके पैसा बनाना चाहते हैं और इसलिए चिंटू भी उनके साथ आता है हमे इस कालोनी मे आए ज्यादा समय नही हुआ था , निर्मल काका कई साल से सामने वाले शर्मा जी कि कोठी में काम कर रहे थे उन्होने ही काका को हमारे यहाँ भेजा था काका अक्सर बात करते हुए कहते थे कि वो शर्माजी के यहाँ अपनी तनखाह जमा करवाते आ रहे थे ताकि इकठ्ठा पैसा शादी में काम आ सके गर्मी अपने चरम पर पहुँच गई और वो जुर्रिदार हाथ तन्मयता से अपना काम करते रहे
आज दस दिन हो गए है निर्मल काका का कुछ पता नही ,मेनें उन्हें सामने वाले घर में भी आते हुए नही देखा ,जिज्ञासा वश जब माँ से पूछा तो पता चला कि उन्हे लू लग गई थी और चार- पाँच दिन पहले उन्होंने दम तोड़ दिया और चिंटू अब जेल मैं हैं ,दरसल उस माली के बेटी ने अपनी हद पार कर दी ,जब शर्मा अंकल ने काका के किसी भी पैसे का उनके पास होने से इनकार कर दिया ,उसने पत्थर उठा लिया ...और ............

Monday, September 8, 2008

सत्यव्रत

हर इंसान जीवन में कुछ न कुछ पाना चाहता है या ये कहिये की कुछ ना कुछ अलग करना चाहता है ऐसी ही किसी इच्छा के वशीभूत होकर सत्यव्रत ने प्रण किया कि वो एक दिन उच्च शिक्षा के लिए सागर के पार जाएगा उसका सपना था कि वो अपनी नियति को बदल देगा ,वो अपनी बीमार माँ के लिए भरपेट खाना और बाबा के लिए एक साइकिल लेना चाहता था सत्यव्रत के बाबा ने जीवन भर पैदल चलकर उसकी पढ़ाई के लिए धन जुटाया था,समय बीतता गया और सत्यव्रत का निश्चय और भी ढ्रद होता गया , उसने दिन रात मैं फर्क किए बिना पढ़ाई की और एक दिन उसके सपने पूरे हो गए, उसका दाखिला अमेरिका के एक अच्छे कालिज में हो गया ! उसके सपनो के लिए बाबा ने घर को भी गिरवी रख दिया
आज इस बात को वर्षो बीत चुके हैं सत्यव्रत अब एक बड़ी बैंक में अधिकारी है ,लोग कहते है कि उसके बच्चे बहुत सुंदर हैं शायद उसकी बीबी से भी ज्यादा , हाँ उसकी माँ के बारे मैं सुना कि तीन साल पहले उन्होने सिविल अस्पताल में दम तोड़ दिया ,सत्यव्रत उस समय यूरोप में कहीं था और हाँ उसके बाबा आज भी नौकरी कर रहे हैं कहते हैं कि वो अपने घर को महाजन से वापिस लेना चाहते हैं ताकि जब उनके नाती आयें तो उन्हें शर्मिंदा ना होना पड़े