Sunday, November 30, 2008

आतंकवादियों के नाम एक भारतवासी क़ी चिट्ठी

ध्वंस,विध्वंस की आवाज़ों के बीच
में अब जाग रहा हूँ |
अपनो के लहू से भींगी धरती को देख
नवभारत के सपने पाग रहा हूँ ||

आतंक की पराकाष्ठा दिखा ,
ये न समझो कि में डर जाऊँगा |
गोलियाँ , भाषण कितने भी दे लो ,
पर ये ना समझो कि में मर जाऊँगा ||

में जीऊँगा इस धरती पर,
जब तक एक भी पुष्प खिलेगा |
में जीऊँगा जब तक ,
एक भी शहीद अम्रत्व से मिलेगा ||

तुम चाहें जितनी भी कोशिश कर लो,
परिवर्तन अब नही रुकेगा |
बाँध लो जितने बाँध बाँधने हो ,
पर यह ज्वार तुमसे न थमेगा ||

मुझे अपना चैन वापिस चाहिए,
और मुझे पता है कि क्या करना है |
तुम अपना फ़ैसला करो ,
कि सुधारना है या सिधरना है ||

ज़य अखंड भारत
" एक भारतवासी"

Sunday, November 16, 2008

बाल दिवस पर विशेष

आज सड़क पर एक रैली जा रही थी |
सरपट-सरपट दौड़ भाग, बाल दिवस की खुशियाँ फैली जा रही थी |
अभिभावक अपने नौ निहालों को देख मंद-मंद मुस्कुराते थे |
खुश हो उनके भविष्य की सुखद कामना लिए , अनूठे सपने सजाते थे |

पर इन सब से दूर , दो छोटे-छोटे हाथ , गर्म भट्टी मैं लोहा पिघला रहे थे |
भूली - बिसरी गलियों मैं अपनी , कोमल देह तपा रहे थे |
जुलूंस जब पास से निकला तो हाथ थम गये | और वो खिड़की से झाँकने लगे |
उन नन्ही नीरस आखों को देख , एक बच्चा दूसरे से कहता है |
देख लगता है उस कोठरी मैं भी बचपन रहता है |

Tuesday, November 11, 2008

विवशता

रात ग्यारह बजे की लोकल ट्रेन विकरोली स्टेशन पर आकर रुकी और अनीश अपने डिब्बे से उतर कर धीरे-धीरे घर की तरफ चल पड़ा ,उसकी यह रोज की आदत थी , वह स्टेशन के पास ही रहता था और शाम को अक्सर अपनी धुन में सवार, पैदल ही घर जाता था. उस दिन ठंड कुछ ज़्यादा थी और सड़क पर ज़्यादा भीड़-भाड़ भी नहीं दिखाई दे रही थी.

अचानक चलते-चलते उसे सड़क किनारे, एक लॅंप पोस्ट के नीचे कुछ साया सा हिलता दिखाई दिया, पहले तो अनीश ने वहाँ से चुप चाप निकल जाना ठीक समझा पर जब उस साए ने करुन आवाज़ में उसे पुकारा तो वो ठिठक गया . वह कोई सत्तर साल की एक अर्धविच्छपत महिला थी जो अपने आप मे ही कुछ बड़बड़ा रही थी . अनीश उसके पास पहुँचा तो वो कुछ सहम सी गयी.

देखने वालों के लिए एक अजीब तमाशा था , एक नये जमाने का जीन्स-शर्ट पहना हुआ लड़का , फटे कपड़ों में बैठी एक अर्धविच्छपत बुढ़िया के पास , घुटनो के बल बैठा कुछ समझने को कोशिश कर रहा था. वह बुढ़िया हाथ में ऐक सेब लिए उससे कुछ कहने की कोशिश कर रही थी, पर बहुत दिमाग़ लगाने के बाद भी अनीश उसकी बात समझ नही पा रहा था. कहते है जब भूंख लगती है तो पेट खुद ही बोलने लगता है . जब बुदिया ने अपने पेट की तरफ इशारा किया तो अनीश को समझ में आ गया की उसे भूंख लग रही है , पर हाथ में सेब , फिर भी ये कैसी विवशता थी ?

अचानक , अनीश के दिमाग़ में कुछ आया और वो वहाँ से उठ कर चल दिया, देखने वालों के लिए भी तमाशा ख़त्म हुआ पर कुछ देर बाद वह नीरज के साथ मोटर साइकिल पर वापिस आया,उसके हाथ में एक ब्रेड का पैकेट और चाकू था .अनीश ने बुढ़िया के हाथ से सेब लिया और उस बिन दाँतों की काया को , सेब काटकर खिलाने लगा. इसके साथ बुढ़िया की विवशता का अंत हुआ और देखने , दान देने वालों को भी एक सीख मिल गयी.