Tuesday, November 11, 2008

विवशता

रात ग्यारह बजे की लोकल ट्रेन विकरोली स्टेशन पर आकर रुकी और अनीश अपने डिब्बे से उतर कर धीरे-धीरे घर की तरफ चल पड़ा ,उसकी यह रोज की आदत थी , वह स्टेशन के पास ही रहता था और शाम को अक्सर अपनी धुन में सवार, पैदल ही घर जाता था. उस दिन ठंड कुछ ज़्यादा थी और सड़क पर ज़्यादा भीड़-भाड़ भी नहीं दिखाई दे रही थी.

अचानक चलते-चलते उसे सड़क किनारे, एक लॅंप पोस्ट के नीचे कुछ साया सा हिलता दिखाई दिया, पहले तो अनीश ने वहाँ से चुप चाप निकल जाना ठीक समझा पर जब उस साए ने करुन आवाज़ में उसे पुकारा तो वो ठिठक गया . वह कोई सत्तर साल की एक अर्धविच्छपत महिला थी जो अपने आप मे ही कुछ बड़बड़ा रही थी . अनीश उसके पास पहुँचा तो वो कुछ सहम सी गयी.

देखने वालों के लिए एक अजीब तमाशा था , एक नये जमाने का जीन्स-शर्ट पहना हुआ लड़का , फटे कपड़ों में बैठी एक अर्धविच्छपत बुढ़िया के पास , घुटनो के बल बैठा कुछ समझने को कोशिश कर रहा था. वह बुढ़िया हाथ में ऐक सेब लिए उससे कुछ कहने की कोशिश कर रही थी, पर बहुत दिमाग़ लगाने के बाद भी अनीश उसकी बात समझ नही पा रहा था. कहते है जब भूंख लगती है तो पेट खुद ही बोलने लगता है . जब बुदिया ने अपने पेट की तरफ इशारा किया तो अनीश को समझ में आ गया की उसे भूंख लग रही है , पर हाथ में सेब , फिर भी ये कैसी विवशता थी ?

अचानक , अनीश के दिमाग़ में कुछ आया और वो वहाँ से उठ कर चल दिया, देखने वालों के लिए भी तमाशा ख़त्म हुआ पर कुछ देर बाद वह नीरज के साथ मोटर साइकिल पर वापिस आया,उसके हाथ में एक ब्रेड का पैकेट और चाकू था .अनीश ने बुढ़िया के हाथ से सेब लिया और उस बिन दाँतों की काया को , सेब काटकर खिलाने लगा. इसके साथ बुढ़िया की विवशता का अंत हुआ और देखने , दान देने वालों को भी एक सीख मिल गयी.

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