रात्रि के अंतिम पहर में , तीव्र निद्रा में सोया शहर.
ये जान में कुछ सैर को निकला , देखा क़ी -
चटकी खिड़कियों मैं कुछ साए हिल रहे हैं ,
कुछ हाथ अभी भी कपड़ा दर कपड़ा सिल रहे हैं .
जिग्यासा देवी ने मेरे पैरों को बरबस ही उस ओर मोड़ दिया ,
रोंगटे खड़े करने वाला द्रश्य सामने गोचर हुआ ,
देखा छोटे-छोटे हाथ मशीन क़ी तरह काम कर रहे थे ,
रात के इस साए मैं अंजान कारीगरों का नाम कर रहे थे |
और तीव्र निद्रा मैं सोया शहर अब भी सोया हुआ था ,
किसे परवाह कौन सा बचपन कहाँ खोया हुआ था |
पहर ख़त्म हुआ और चहल - पहल शुरू हुई पर
शहर शायद अब भी सोया हुआ है |
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