प्रिय मित्रों,
कल जो भी कुछ महाराष्ट्र विधानसभा में हुआ,उसे देखने के बाद मुझे दुख है कि में अब एक ऐसे हिन्दुस्तान का नागरिक हूँ जहाँ ओछी राजनीती की दुकान चलाने के लिए हमारे नेतागण अपनी मूल जड़ों , सिद्धांतों को ताक पर रख मर्यादा की सभी सीमाओं को लाँघने को तत्पर हैं |मैं नही जानता की कौन ग़लत है या सही और में ढिंढोरा नही पीटता की क्या हुआ और क्यों हुआ,बस मुझे चिंता है मेरी (हिन्दी) की जिसका चीरहारण को अब कोई बाहरी दुशासन नही, परंतु उसके अपने बेटे ही तत्पर
है |
डरी-सहमी हिन्दी
में डरी-सहमी सी हिन्दी,आज एकटक देखती हूँ अपने पुत्रों को लड़ते-झगड़ते हुए.
बँटते-बाँटते हुए मेरे नाम पर,राजनीती की धार पर मेरी राख रगड़ते हुए.
भूल चुके हैं यह ,कि में ही वह पहला स्वर थी जो इनके मुख पर आया था,
और भूल चुके हैं यह भी,कि में ही वो भाषा थी, जिसमे पहली बार माता को बुलाया था.
आज के इस युग में,हरपल सिसकती में याद करती हूँ अपने उन वीर पुत्रो,जिन्होने मुझे
साथ ले अँग्रेज़ों से लोहा लिया था,उन वीर मराठा, बुन्देलो को, जिन्होने साथ-साथ मिल जय हिंद का स्वप्न दिया था.
आज में स्वयं को अपमानित,शोक में डूबा हुआ पाती हूँ,जब देखती हूँ कि में बिना बात ही
अचानक अपने पुत्रो में विभाजन का विषय बन जाती हूँ....
में डरी-सहमी सी हिन्दी..एकटक. देखती हूँ अपने पुत्रों को...
कभी इस भारत में एक युग था जब मेरे स्वर से सब देवी देवताओं को प्रसन्न किया करते थे.
एक युग था जब सड़कों पर मेरी ओट में लिखे इन्कलावी गीतों के गर्जन से,दुश्मन आह भरते थे.
पर आज मेरे अपने पुत्र ही मुझे बाँटने पर तुले हुए हैं,भूल चुके हैं उस इतिहास को,घटनाओं को
जिसके सिद्धांतों पर हम सब एक दूजे में घुले हुए हैं.
मुझे कुछ नही चाहिए तुमसे पुत्रों बस एक माँ की यही अंतिम प्रार्थना है .....
अब बंद करो मेरा तमाशा बनाना क्यों की जो लहू बहेगा वह मेरी ही वर्षों की साधना है....
में डरी-सहमी सी हिन्दी..एकटक. देखती हूँ अपने पुत्रों को......
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