Wednesday, December 14, 2011

घर से चलते चलते कितनी दूर आ गये

घर से चलते चलते कितनी दूर आ गये हम कि उन गलियों की याद भी धुंधली हो गयीं हैं ,
धुंधला हो गया है वो बचपन जिसमें इस आज के सपने देखे थे....
सोचा था की एक खुश सा संसार होगा , सब अपने लोग और बहुत सारा प्यार होगा....
एक छोटी सी दुनिया होगी हमारी भी , एक छोटा सा बाग और ऐक छोटी सी क्यारी भी...
पर आज जो सपना है जो हक़ीकत हैं वो नही वो अपना है..
बस चले जा रहे हैं भटकती राहों में , बे मंज़िल बे मकसद उस बचपन की तलाश में........
जो कभी हमारा सपना था पर आज धुँधला हैं.....सफ़र अनवरत जारी है....बस.....
अब आसूओं की चादर के पीछे नयनों को घर की दीवार भी दिखिनी बंद हो गयी है.....क्यों कि....
घर से चलते चलते कितनी दूर आ गये हम कि उन गलियों की याद भी धुंधली हो गयीं हैं ...

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