चले आए बहते झरनो की तरह,
भिन्न, भेष-भूषा लबादों में छिपे,
हैं आग पेट की बुझाने कुछ दानों की तलाश,
एक मुट्ठी मिट्टी की आस, फिरते ये मासूम परिंदे |
खुद के खोंसलों को छोड़, आशिए दूसरों के बनाने को तैयार,
एक ज़मीन को माँ बोल दूसरी को देते मासी सा प्यार.
टपकती छतों से लड़ते-झगड़ते, बारिश की बूँदों में करवटें बदलते.
ट्रेन की धड़-धड़ मे सुर लगाते, दो ब्रेड के टुकड़ों में दिन बिताते.
एक मुट्ठी मिट्टी की आस लिए फिरते ये मासूम परिंदे.
कभी नेता की जूती की कील बनते ,कभी कुर्सी की पहुँच की हील बनते.
कभी माँस के लोथ में कटे तड़प्ते, बेबस आँखों से पत्थर से गिरते....
एक आशा के साथ फिर भी मुस्कुराते....बूँद बन सागर में मिल जाते.....
चले आते ...हर नयी सुबह के साथ फिर ........कुछ अपने ही ये मासूम परिंदे..........
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1 comment:
Lovely poem:)
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